Read this essay in Hindi to learn about the three main approaches to the study of international relations.
Essay # 1. परम्परावादी दृष्टिकोण (Traditional Approach):
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के परम्परावादी दृष्टिकोण का आधार दर्शन, इतिहास और कानून है । यह इतिहास को एक ऐसी प्रयोगशाला के रूप में देखता है जिससे वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का विश्लेषण एवं परीक्षण होता रहता है ।
इतिहास मानवीय प्रयोगों का भण्डार है जिससे शिक्षा लेकर समकालीन त्रुटियों को सुधारा जा सकता है । इतिहास का अध्ययन तथ्य-ज्ञान एवं सामान्यीकरणों की परीक्षा करने के साधन के अतिरिक्त विचार क्षितिज को विस्तृत बनाता है ।
इस दृष्टिकोण के अनुसार- कूटनीतिक इतिहास का अध्ययन आवश्यक है जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि भूतकाल में अन्तर्राष्ट्रीय विवादों का क्या स्वरूप था तथा उन्हें किस प्रकार सुलझाया गया है । ऐतिहासिक उपागम विभिन्न देशों के विशिष्ट विकास और परिवर्तन पर हमारा ध्यान केन्द्रित करता है जिससे अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के परिवर्तन क्रम को समझने में सहायता मिलती है ।
इस उपागम का मुख्य आधार है कि- अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में परिवर्तन राज्यों के विकास और परिवर्तन के साथ ही होता रहता है । अत: अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का समकालीन स्वरूप एक क्रमिक तथा दीर्घ विकास का फल है ।
विधिवादी दृष्टिकोण के समर्थकों ने विधि के आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को समझने का प्रयास किया । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विधिनियमों तथा इनके आधार पर स्थायी विश्व व्यवस्था का निर्माण विधिवादी दृष्टिकोण का उद्देश्य था ।
विधिवादी अन्तर्राष्ट्रीय कानून सन्धियां राज्यों के मध्य विधि-व्यवस्था सांविधानिक उपबन्धों द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में अन्तर्दृष्टि का विकास चाहते थे । इन्होंने विधि एवं व्यवस्था के आधार पर विश्व-निर्माण का सुझाव दिया ।
ई. एच. कार, एल्फ्रेड जिमर्न, जॉर्ज श्वार्जनबर्गर, मार्टिन वाइट, रेमां आरों, जैसे कई विद्वानों ने परम्परावादी दृष्टिकोण के आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन का प्रयत्न किया । लेकिन हैडले बुल ने सन् 1966 में वैज्ञानिक प्रणाली को चुनौती देते हुए परम्परावादी उपागम को अपने अध्ययन का केन्द्र बनाया ।
बुल ने स्पष्ट कहा कि, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की विषय-वस्तु का स्वरूप कुछ ऐसा है कि, उसका अध्ययन वैज्ञानिक उपकरणों से नहीं किया जा सकता । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का सम्बन्ध मूलत: नैतिक प्रश्नों से है ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्येयता को प्रभुत्वसम्पन्न राज्यों की संरचना और उद्देश्य, उनके बीच होने वाले विवादों युद्धों बल प्रयोग के औचित्य और अनौचित्य आदि प्रश्नों के हल ढूंढने होते हैं । अत: इतिहास और दर्शन का समीचीन अध्ययन किया जाना चाहिए । इतिहास और दर्शन से ही आत्मलोचन के साधन प्राप्त हो सकते हैं ।
डेविड वाइटल के शब्दों में- “परम्परावादी दृष्टिकोण के दो प्रमुख तत्व है प्रणाली और विषय-वस्तु । प्रणाली के मामले में परम्परावादी दृष्टिकोण इतिहास विधिशास्त्र और दर्शन से सीखने और विवेक या निर्णय बुद्धि पर भरोसा करने को आवश्यक मानता है और विषय-वस्तु के मामले में वह अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में बल प्रयोग की भूमिका और राजनय के महत्व जैसे व्यापक प्रश्नों को विचारणीय मानता है ।”
परम्परावादी दृष्टिकोण: समालोचना:
पारम्परिक ऐतिहासिक-दार्शनिक उपागम की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि, यह विभिन्न संस्कृतियों सभ्यताओं का एक तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करके समकालीन अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को समझने का व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है । इस उपागम से हमें मानव जाति, मानव प्रकृति, प्रेरणाओं तथा समाजों के अस्थान-पतन का एक स्पष्ट सूत्र भी प्राप्त होता है । इस दृष्टिकोण की अनेक कमियां भी हैं ।
प्रथम, ऐतिहासिक विवेचना और शोधों के आधार पर यह एक प्रकार से ‘अग्रिम निर्णयों’ का रूप धारण कर लेता है और इस प्रकार समकालीन घटनाचक्र की व्यवस्थित तर्कसंगत व्याख्या का विरोधी हो जाता है । इसलिए कहते हैं कि इतिहास के अत्यधिक प्रयोग से दृष्टि अनुदार हो जाती है ।
द्वितीय, ऐतिहासिक उपागम में दूसरी कमी यह है कि तथ्यों की इतनी बहुलता होती है कि हम अपनी रुचि के तथ्य छांट लेते हैं जिससे हमारी पूर्वधारणाओं को और पूर्वाग्रहों को बल मिलता है । उन सब तथ्यों की उपेक्षा कर दी जाती है जो पूर्वाग्रहों की सीमा में उचित नहीं बैठते ।
पैडेलफोर्ड तथा लिंकन के शब्दों में वर्तमान युग में केवल राजनयिक इतिहास का अध्ययन लाभप्रद होते हुए भी पर्याप्त नहीं है । आज अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्येयता के लिए अतीत के इतिहास से प्राप्त जानकारी की अपेक्षा वर्तमान परिस्थितियों के सन्दर्भ में नीति निर्धारण प्रक्रिया तथा राजनीतिक सौदेबाजी की कला का ज्ञान कहीं अधिक है ।”
Essay # 2. व्यवहारवादी दृष्टिकोण अथवा वैज्ञानिक दृष्टिकोण (Behavioural Approach or Scientific Approach):
यह माना जाता है कि द्वितीय विश्व युद्ध के उपरान्त व्यवहारवादी क्रान्ति हुई । अनेक कारणों से जिनमें एक परम्परावादी राजनीति विज्ञान के परिणामों के प्रति असन्तोष भी था राजनीतिक विद्वानों का ध्यान वैज्ञानिक पद्धति की ओर आकर्षित हुआ ।
व्यवहारवादी क्रान्ति के फलस्वरूप अधिकांश विद्वान नैतिक सिद्धान्तों को त्यागकर व्याख्यात्मक सिद्धान्तों को ही प्रतिपादित करने लगे । अद्वितीय घटनाओं (इडिओग्रैफिक) के स्थान पर विद्वान लोग राजनीतिक व्यवहार में पुनरावृत करने वाली नियमितताओं (नोमोथैटिक) की खोज को अपने अध्ययन का केन्द्र-बिन्दु मानने लगे ।
संदिग्ध एवं अस्पष्ट संप्रत्ययों के स्थान पर ऐसे क्रियात्मक संप्रत्ययों का प्रयोग करने लगे जिनकी सहायता से की गयी व्याख्या का इन्द्रियानुभविक आधार पर परीक्षण एवं सत्यापन हो सके । यह सत्य है कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र में कुछ विद्वानों ने व्यवहारवादी शोध द्वितीय महायुद्ध से पूर्व ही प्रारम्भ कर दिया था ।
जैसे किसी राइट वैज्ञानिक पद्धति का समर्थक था और द्वितीय महायुद्ध के समय किया हुआ उनका युद्ध सम्बन्धी शोध कार्य (A Study of War, Chicago, 1942) अभी भी व्यवहारवादी शोध में आदर के स्थान पर प्रतिस्थापित है । इसी प्रकार के कुछ अन्य अपवाद हो सकते हैं ।
पर वास्तविकता यह है कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र में व्यवहारवादी शोध का प्रभाव सन् 1960 तक प्रतिफल नहीं हुआ । वस्तुत : व्यवहारवादी उपागम अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन को अधिकाधिक वैज्ञानिक रूप प्रदान करने का प्रयास है ।
इसका मूल लक्ष्य व्यवस्थित और अनुभववादी सिद्धान्तों का निर्माण करना है ताकि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के मूलभूत स्वरूप को समझा जा सके । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में व्यवहारवादी ‘प्रतिमान निर्माण’ (मॉडल बिल्डिंग) और अन्य तकनीकों पर बल देते हैं और मानवीय मामलों में आकस्मिकता के तत्वों में कोई दिलचस्पी नहीं रखते ।
वे इस बात पर जोर देते हैं कि पहले तो हमें किसी विशेष स्थिति के सारे प्रासंगिक तथ्य इकट्ठे करने चाहिए फिर उन तथ्यों को अपनी आधार-सामग्री मानकर उनका विश्लेषण करना चाहिए और अन्त में अपने निष्कर्ष और निर्णय इस ढंग से पेश करने चाहिए कि मानो तथ्य स्वयं अपनी कहानी कह रहे हों ।
इसके लिए दो बातें आवश्यक हैं: प्रथम, अनुसन्धान के लिए छांटी गयी समस्या या क्षेत्र छोटा होना चाहिए ताकि तथ्यों का संकलन आसान हो; द्वितीय अनुसन्धान निष्कर्षों पर अपने व्यक्तिगत विचारों का प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए अर्थात् अनुसन्धान का फल अनुसन्धानकर्ता की व्यक्तिगत पसन्द से थोपा हुआ नहीं होना चाहिए । डेविड ट्रूमैन के अनुसार, व्यवहारवादी उपागम से अभिप्राय है कि अनुसन्धान क्रमबद्ध हो तथा अनुभवात्मक तरीकों का प्रयोग किया जाए ।
किर्क पैट्रिक के अनुसार व्यवहारवाद चार तत्वों का मिश्रण है:
(1) विश्लेषण की इकाई के रूप में संस्थाओं की अपेक्षा व्यक्ति तथा समूह के आचरण का अध्ययन ।
(2) सामाजिक विज्ञानों की एकता पर बल तथा अन्त: अनुशासनात्मक अध्ययन पर बल ।
(3) तथ्यों के पर्यवेक्षण हेतु सांख्यिकीय तथा परिमाणात्मक तकनीकों पर बल ।
(4) अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को एक व्यवस्थित आनुभविक सिद्धान्त के रूप में परिभाषित करना । व्यवहारवाद के अध्ययन की इकाई मानव का ऐसा व्यवहार है जिसका प्रत्येक व्यक्ति द्वारा पर्यवेक्षण, मापन और सत्यापन किया जा सकता है । व्यवहारवाद राजनीतिक व्यवहार के अध्ययन से राजनीति की संरचनाओं, प्रक्रियाओं, इत्यादि के बारे में वैज्ञानिक व्याख्याएं विकसित करना चाहता है ।
वस्तुत: व्यवहारवाद एक ऐसा दृष्टिकोण है जिसका लक्ष्य विश्लेषण की इकाइयों, नयी पद्धतियों, नयी तकनीकों, नए तथ्यों और एक व्यवस्थित सिद्धान्त के विकास को प्राप्त करना है । व्यवहारवादी उपलब्ध समस्त वैज्ञानिक साधनों का प्रयोग करना चाहते है ताकि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को ‘विज्ञान’ बना सकें ।
व्यवहारवादी उपागम के प्रभाव में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में कई सिद्धान्तों एवं अवधारणाओं का विकास एवं निर्माण हुआ जिनमें निर्णय निर्माण सिद्धान्त (Decision-Making Theory), संचार सिद्धान्त (Communication Theory) व्यवस्था सिद्धान्त (System Theory) आदि प्रमुख हैं ।
मार्टन कैप्लन तथा डेविड ईस्टन जैसे थोड़े-से व्यक्तियों को छोड्कर व्यवहारवादी हमें अधिकतर आंशिक सिद्धान्त ही दे पाए, किन्तु इन आंशिक सिद्धान्तों के निर्माण में व्यवहारवादियों ने नयी तकनीकें अपनायीं जिनमें सांख्यिकी और गणित का प्रयोग, अन्तर्वस्तु विश्लेषण और खेल तकनीक और अनुरूपता की प्रयोगशाला वाली तकनीकें भी शामिल हैं । संक्षेप में, व्यवहारवाद के प्रमुख उपहार वैज्ञानिक विधियां, व्यवहारवादी दृष्टिकोण एवं मूल्य निरपेक्षवाद अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति द्वारा आत्मसात् कर लिए गए हैं ।
आलोचकों के अनुसार व्यवहारवादी वैज्ञानिकों ने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को जो स्वरूप प्रदान किया उसने इसकी विषय सामग्री को पृष्ठभूमि में धकेल दिया-अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन पद्धति प्रधान और तकनीक प्रधान बनता जा रहा है । विषय-सामग्री के स्थान पर व्यवहारवादी सिद्धान्तों में शब्द-जाल शब्द-आडम्बर ही है, यह तत्व से पृथक् होकर तथ्य संग्रहालय की श्रेणी में आता जा रहा है । माइकल हैन्स ने इसे ‘अति तथ्यवाद’ कहा है ।
Essay # 3. उत्तर-व्यवहारवादी दृष्टिकोण (Post-Behavioural Approach):
सन् 1960 के दशक की समाप्ति से पहले डेविड ईस्टन के द्वारा व्यवहारवादी स्थिति पर एक शक्तिशाली आक्रमण किया गया । उत्तर-व्यवहारवादी क्रान्ति उठ खड़ी हुई जो कि संगति (Relevance) तथा कर्म (Actions) को आधार बनाकर सामने आयी ।
व्यवहारवादी, जिन्होंने उत्तर-व्यवहारवादियों का रूप ले लिया था यह मानते हैं कि, उनके द्वारा नगण्य और प्राय: निरर्थक शोध पर बहुत अधिक समय खर्च कर दिया गया था । जबकि वे वैचारिक संरचनाओं प्रतिमानों सिद्धान्तों और अधिसिद्धान्तों के निर्माण में लगे हुए थे उनकी अपनी पाश्चात्य दुनिया को तीव्र सामाजिक आर्थिक और सांस्कृतिक संकटों का मुकाबला करना पड़ रहा था और वे स्वयं उनके सम्बन्ध में सर्वथा अनजान थे ।
जब व्यवहारवादी स्थिरता स्थायित्व सन्तुलन, प्रतिमान संरक्षण आदि की समस्याओं से उलझे हुए थे और आधार सामग्री और विश्लेषण के लिए निर्माण की गयी विशेषीकृत तकनीकों के आधार पर कभी-कभी क्षेत्रानुसन्धान भी कर लेते थे बाहर का समाज विघटन और टूट-फूट की स्थितियों में से गुजरता हुआ दिखायी दे रहा था ।
आणविक शस्त्रों का आतंक अमरीका में बढ़ते हुए आन्तरिक मतभेद जिनके कारण गृह-युद्ध और तानाशाही शासन की सम्भावनाएं भी सोची जा रही थीं वियतनाम में अघोषित युद्ध जो विश्व की नैतिक अन्तरात्मा पर प्रहार कर रहा था ये सब ऐसी स्थितियां थीं जिनके सम्बन्ध में व्यवहारवादी विचारकों ने कल्पना भी नहीं की थी ।
उत्तर-व्यवहारवादियों का प्रश्न था कि उस अनुसन्धान की उपयोगिता क्या थी जिसने समाज के इन तीव्र रोगों और समस्याओं पर ध्यान भी नहीं दिया था । हैडले बुल ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में उत्तर-व्यवहारवादी सिद्धान्त की तीन प्रमुख प्रवृत्तियों का उल्लेख किया है ।
प्रथम:
अध्ययन पद्धति की ओर झुकाव एवं आग्रह में कमी आयी है । अब तात्विक तथा विषय-सामग्री को पुन: प्राथमिकता दी जाने लगी है । व्यवहारवादी उपागम में तकनीक और पद्धति सामान्यत: साध्य बन चुके थे । मूल विषय तथा विश्लेषण के आधार पर विषय सम्बन्धी निष्कर्षों की उपेक्षा हुई थी । अब पद्धतिशास्त्र की प्राथमिकता समाप्त होती जा रही है । अब अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की शोध में तकनीक की तुलना में सारवस्तु को अधिक उपयोगी माना जा रहा है ।
द्वितीय:
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के सिद्धान्तों में आदर्शों तथा मूल्यों के महत्व की पुनर्स्थापना करना है । अब मूल्य-प्रधान आन्दोलन सक्रिय होकर गति पकड़ता जा रहा है । अब यह स्वीकार कर लिया गया है कि, मूल्यों की आधारशिला पर ही अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की इमारत खड़ी की जा सकती है । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में मूल्यों का बहुत अधिक महत्व है और वैज्ञानिकता के नाम पर राजनीतिक अध्ययन से मूल्यों को बहिष्कृत नहीं किया जा सकता । यही कारण है कि वर्तमान में कई विद्वान एवं अन्वेषण केन्द्र ‘शान्ति अन्वेषण’ एवं ‘शान्ति अध्ययन’ को अपने शोध का प्रमुख पक्ष बना रहे हैं ।
तृतीय:
उत्तर-व्यवहारवादी अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के सिद्धान्त में न्यायपूर्ण विश्व व्यवस्था पर आग्रह है । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में सिद्धान्त अन्वेषण विश्वव्यापी बन चुका है । वैसे इस क्षेत्र में अमरीका की प्रमुखता एवं नेतृत्व रहा है किन्तु अब अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के सैद्धान्तिक अध्ययन में अमरीका का एकाधिकार समाप्त होता जा रहा है ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन एवं सिद्धान्त-निर्माण के विश्व में अनेक केन्द्र स्थापित हो चुके हैं । स्केंडेनेवियन राज्य विशेषत: स्वीडन और डेनमार्क शान्ति अन्वेषण के प्रमुख केन्द्र बन चुके हैं । इंग्लैण्ड, लैटिन, अमरीका, भारत, आदि में सिद्धान्त अध्ययन पूर्णत: ग्राह्य बन चुका है तथा कई महत्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं । संक्षेप में, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के सिद्धान्त का विश्व परिप्रेक्ष्य निर्मित हो रहा है ।