Here is an essay on ‘International Politics’ especially written for school and college students in Hindi language.

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था निरन्तर बदलती जा रही है और इसमें बदलाव का मुख्य कारण है, समय-समय पर नई प्रवृत्तियों और मुद्दों का उदय होना । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञों का मत है कि 20वीं शताब्दी में तीन ऐसे अवसर आये, जबकि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन आया ।

पहला अवसर:

प्रथम विश्व-युद्ध की समाप्ति के बाद (1919 के बाद)

द्वितीय अवसर:

द्वितीय महायुद्ध की समाप्ति के बाद (1945 के बाद) 

तृतीय अवसर:

पिछले दशक (1991) में सोवियत संघ के विघटन के बाद विश्व-शक्ति सन्तुलन में बुनियादी परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगे । खाड़ी युद्ध की समाप्ति परराष्ट्रपति बुश ने ‘नई विश्वव्यवस्था’ (New World Order) की स्थापना का स्पष्ट संकेत दे दिया था ।

20वीं शताब्दी की अन्तिम दशाब्दी में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था का प्रारूप बदलने लगा । 1991-2001 में एक के बाद एक ऐसी घटनाएं हुई हैं कि द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद वाली विश्व व्यवस्था पुरातन-सी लगने लगी ।

नये अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक ढांचे के निर्माण का नारा अमरीका ने लगभग दस वर्ष पूर्व लगाया था । शीत-युद्ध की समाप्ति और सोवियत संघ का पूर्वी यूरोप में प्रभावहीन हो जाना इस नारे की पृष्ठभूमि में थे । उस समय इस विषय पर जो बहस चली उसमें अमरीका की तरफ से यह कहा गया कि नई अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में संयुक्त राष्ट्र संघ की एक महत्वपूर्ण भूमिका होगी ।

यह रवैया अमरीकी विदेश नीति में बहुत बड़ा परिवर्तन था क्योंकि पिछले कई वर्षों से वह संयुक्त राष्ट्र संघ से नाखुश था । हालात यहां तक पहुंच चुके थे कि अमरीका ने अपने हिस्से की चन्दे की रकम भी उसे देनी बन्द कर दी थी ।

अमरीका इस संस्था के दो संगठनों (अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संघ और यूनेस्को) से बाहर हो गया । उसकी शिकायत थी कि सोवियत संघ के इशारे पर तीसरी दुनिया के देश इन संगठनों में हर मामले पर अमरीका का विरोध करते हैं ।

अमरीका के हिसाब से संयुक्त राष्ट्र संघ बेमतलब हो गया था । मार्च-अप्रैल 2003 में ‘ऑपरेशन इराकी फ्रीडम’ ने सद्‌दाम के शासन का ही अन्त नहीं किया अपितु संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में निहित सामूहिक सुरक्षा की अवधारणा का भी अन्त कर दिया ।

सन् 1985 में गोर्बाच्योव सोवियत संघ में सत्ता में आये । उन्होंने द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद से चली आ रही पश्चिम से टकराव की नीति को छोड्‌कर अमरीका तथा उसके सहयोगी देशों से मिल-जुलकर चलने का रास्ता अपनाया ।

संयुक्त राष्ट्र संघ में सारे कार्य सर्वसम्मति से होने लगे । इस माहौल से अमरीका काफी प्रसन्न हुआ और उसने अपने प्रस्तावित नये अन्तर्राष्ट्रीय ढांचे में संयुक्त राष्ट्र की महत्ता का बखान करना शुरू कर       दिया । इस नीति का उपयोग अमरीका ने इराक को पड़ोसी देश कुवैत से खदेड़ने में जी भरकर किया ।

जुलाई, 1990 में इराक ने कुवैत पर कब्जा कर लिया और वहां के शासक ने भागकर पड़ोसी देश सऊदी अरब में शरण ली । अमरीका ने कुवैत को स्वतन्त्र कराने का अभियान शुरू किया । इस सम्बन्ध में उसने अपने हर निर्णय का अनुमोदन संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् से कराया ।

दिसम्बर, 1991 में विश्व में एक और बड़ी हलचल हुई । सोवियत संघ छिन्न-छिन्न होकर 15 स्वतन्त्र देशों में बंट गया । पिछले चार दशकों से अमरीका से लोहा लेने वाली विरोधी महाशक्ति विश्व के नक्शे से मिट गयी । अब अमरीका अकेला ही एक महाशक्ति के रूप में उभरकर आया । फिर उसने कुवैत को स्वतन्त्र कराने में जिस तकनीकी रणनीति का प्रयोग किया उससे उसकी धाक और जम गयी ।

इसके बाद अमरीकी रुख में परिवर्तन होना स्वाभाविक ही था । अन्तर्राष्ट्रीय जगत में उसका प्रभाव बढ़ने लगा । अरब देशों ने इजरायल से संवाद शुरू किया, भारत और चीन ने इजरायल को पूर्ण राजनयिक मान्यता दे दी भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ में इजरायल विरोधी प्रस्ताव को निरस्त कराने में अमरीका का साथ दिया । चीन, उत्तरी कोरिया और दक्षिणी अफ्रीका आणविक अस्त्रों के फैलाव को रोकने वाली अन्तर्राष्ट्रीय सन्धि पर हस्ताक्षर करने के लिए राजी हो गये ।

इस प्रकार खाड़ी युद्ध में अमेरिका की विजय पूर्वी यूरोप में साम्यवाद के अवसान सोवियत संघ के विघटन जर्मनी के एकीकरण तथा शीत-युद्ध के अन्त ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की समस्याओं मुद्दों और प्रवृत्तियों का स्वरूप ही बदल दिया ।

यूगोस्लाविया के विघटन वारसा पैक्ट की समाप्ति मध्य एशिया के मुस्लिम गणतन्त्रों का स्वतन्त्र होना अफगानिस्तान में मुक्ति कट्टरवाद की विजय कम्बोडिया में शान्ति की स्थापना से विश्व राजनीति के बदले परिदृश्य को समझा जा सकता है ।

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के बदले परिवेश में निर्गुट आन्दोलन की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न लग गया और सोवियत संघ की समाप्ति के बाद ‘तृतीय विश्व’ का मुहावरा भी कालातीत लगने लगा । बदले अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य में अमरीका की नीति में एक बहुत बड़ा परिवर्तन देखने में आया । अब वह अपने प्रस्तावित नये अन्तर्राष्ट्रीय ढांचे में संयुक्त राष्ट्र संघ को पहले जैसा महत्व नहीं दे रहा है ।

द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद से चली आ रही साझी अन्तर्राष्ट्रीय नीति को वह अब नकार रहा है । उसके स्थान पर वह अब अपना वर्चस्व चाहता है । वह नहीं चाहता कि फिर से कोई महाशक्ति उसके मुकाबले में खड़ी हो । अमरीका विश्व में एक महाशक्ति का बोलबाला चाहता है । रचनात्मक बर्ताव और पर्याप्त फौजी ताकत से अपना वर्चस्व कायम रखना चाहता है ।

”अब विश्व एक-ध्रुवीय हो गया है । एकीकृत जर्मनी और जापान आर्थिक शक्ति के अधिक महत्वपूर्ण केन्द्र बनने के मार्ग पर अग्रसर हैं । यूरोपीय आर्थिक समुदाय में एकीकरण की दिशा में जो दुत गति से प्रगति हुई है उससे सम्भवत: आर्थिक शक्ति के एक अन्य महत्वपूर्ण केन्द्र के रूप में इसकी महत्ता और अधिक उभरेगी ।”

संक्षेप में, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की नई प्रवृत्तियां और उभरते हुए प्रमुख मुद्दे निम्नलिखित हैं:

1. शीत-युद्ध का अन्त (End of Cold War):

द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद की विश्व राजनीति की प्रमुख विशेषता संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीत-युद्ध की राजनीति का चलन था । शीत-युद्ध एक वैचारिक संघर्ष था जिसमें दो विरोधी जीवन पद्धतियां-उदारवादी लोकतन्त्र तथा सर्वाधिकारवादी साम्यवाद-सर्वोच्चता प्राप्त करने के लिए संघर्ष करने लगे ।

1990 के बाद पूर्वी यूरोप तथा सोवियत संघ से साम्यवादी शासनों को विदाई दे दी गयी तथा साम्यवादी दलों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया । सोवियत संघ तथा पूर्वी यूरोप में कम्युनिज्म का वर्तमान संकट मुख्यत: आर्थिक मोर्चे पर असफलताओं से उपजा ।

व्यक्तिगत स्वतन्त्रता खुलापन और निजी सम्पत्ति अचानक महत्वपूर्ण हो गये । जो वर्षों से जी-जान से लेनिन की विचारधारा का समर्थन करते आ रहे थे अब चीख-चीखकर कह रहे हैं कि लोकतन्त्र के बिना समाजवाद की कल्पना नहीं की जा सकती । शीत-युद्ध के अवसान में सोवियत राष्ट्रपति गोर्बाच्योव की ऐतिहासिक भूमिका रही । इसके लिए गोर्बाच्योव को अन्तर्राष्ट्रीय जगत का असाधारण व्यक्ति माना गया ।

 2. एक-ध्रुवीय विश्व (Uni-Polar World):

द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद विश्व दो शक्ति गुटों में विभाजित हो गया जिनमें एक गुट का नेता संयुक्त राज्य अमेरिका और दूसरे गुट का नेता सोवियत संघ था । किन्तु 20वीं शताब्दी के अन्तिम दशक में ऐसा लगने लगा कि विश्व में एकमात्र महानतम शक्ति है और वह है संयुक्त राज्य अमेरिका ।

अब विश्व राजनीति दो भीमाकार दैत्यों के बीच का संघर्ष नहीं रह गयी । साम्यवाद के अवसान के साथ ही दूसरे भीमाकार दैत्य की अकाल मृत्यु हो गयी । वस्तुत: खाड़ी युद्ध में अमरीकी विजय ने उसकी शक्ति प्रभाव एवं वर्चस्व में अभूतपूर्व वृद्धि कर दी । यही कारण है कि आज अमरीका, रूस, चीन, भारत और जापान जैसे देशों को धमकी देने लगा है ।

आज अमरीका विश्व की एकमात्र महाशक्ति है । वह विश्व का एकमात्र पुलिसमैन, दादा या महानायक है । उसकी कोई बराबरी नहीं कर सकता, उसका कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं उसे कोई ललकार या चुनौती नहीं दे सकता । उसके पास इतनी ताकत है कि वह किसी भी देश को आदेश दे सकता है और न मानने पर उसे दण्डित कर सकता है ।

उसके पास परमाणु अस्त्रों की ही प्रचण्ड शक्ति नहीं है वरन् उसके पास आर्थिक क्षमता भी अत्यधिक है । वह राष्ट्रों पर दबाव डालने की स्थिति में है । वह ‘अनुचित व्यापार’ के बहाने राष्ट्रों के आयात पर मनमानी और एकतरफा रुकावटें लाद सकता है । संयुक्त राष्ट्र संघ ही नहीं अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक जैसी वित्त संस्थाएं भी उसकी मुट्ठी में हैं ।

पत्रकार सुरेन्द्र प्रताप सिंह लिखते हैं- “सोवियत संघ सहित वारसा सन्धि के देशों के पतन तथा कुवैत-इराक युद्ध में कुवैत की ओर से निर्णायक भूमिका निभाने के बाद अमरीका ने उस विश्व संरचना को पूरी तरह से बदल डाला है । अमरीका न केवल अपने को विश्व का एकमात्र सूबेदार मान रहा है बल्कि सचमुच एक सूबेदार के रूप में उभरा भी है ।”

आज अमरीका चाहता है कि प्रत्येक देश उसके समक्ष नतमस्तक हो । इस मानसिकता का सर्वप्रथम नजारा देखा गया इराक में जब कुवैत के मसले पर (1991) उसने इराक के खिलाफ द्वितीय महायुद्ध से भी बड़े स्तर का अन्तर्राष्ट्रीय युद्ध छेड़ दिया । उसके बाद हैती, रवांडा, बोस्निया और कोसोवो में अमरीकी ताकत आजमाइश जारी रही ।

अफगानिस्तान में तालिबान का सफाया (2001) महज आतंकवाद के सफाये की कार्यवाही नहीं थी; बल्कि असली मंशा थी अफगानिस्तान में पिछलग्गू सरकार का गठन । इराक मसले (मार्च 2003) पर राष्ट्रपति बुश ने संयुक्त राष्ट्र की खुली उपेक्षा की । सुरक्षा परिषद् को नकारते हुए उसे अप्रासंगिक तक कह दिया ।

फ्रांस-जर्मनी को दगाबाजों की धुरी बताया । फ्रांस को नतीजे भुगतने की चेतावनी तक ले डाली । इराक युद्ध के बाद विश्व में अमेरिका की महाशक्ति की छवि और अधिक पुष्ट हुई । युद्ध के बाद विश्व में ऊर्जा के बड़े स्रोत अमेरिका के नियन्त्रण में आ गए ।

दुष्ट परमाणु ताकतों से अमरीका और उसके मित्र देशों की सुरक्षा के लिए राष्ट्रपति जार्ज वाकर बुश 100-200 अरब डॉलर की राष्ट्रीय परमाणु सुरक्षा व्यवस्था (एन.एम.डी.) विकसित करना चाहते थे जिसके अन्तर्गत हमलावर मिसाइल का पता लगाकर उसे बीच में ही नष्ट करने के लिए उपग्रहों, विमानों, मिसाइलों और पोतों का प्रयोग किया जाना था । इससे लगता है कि अमरीका नये सिरे से चौधराहट दिखाना चाहता है ।

कतिपय राजनीतिक विश्लेषकों ने इस नई विश्व व्यवस्था को बहुध्रुवीयता की ओर अग्रसर बताया है । भारत के पूर्व विदेश सचिव जे.एन. दीक्षित के अभिमत में- ”सैनिक शक्ति एवं विज्ञान प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में यह विश्व भले ही एक ध्रुवीय हो गया हो लेकिन जनसंख्या एवं उससे जनित मानव शक्ति संसाधन, प्राकृतिक संसाधन औद्योगिक एवं प्रौद्योगिक क्षमता अपने वृहद अर्थ में आर्थिक शक्ति आदि कुछ ऐसे तत्व हैं जहां एकध्रुवीयता का अन्त हो जाता है और विश्व बहुध्रुवीय हो जाता है ।”

जर्मनी एवं फ्रांस के संयुक्त संसाधन शक्ति से परिपूर्ण एकीकृत यूरोप, सोवियत संघ का उत्तराधिकारी रूस चीन आर्थिक सुदृढ़ता की ओर तीव्र गति से अग्रसर भारत एवं ब्राजील आर्थिक एवं व्यापारिक क्षेत्र का सरताज जापान इस नई विश्व व्यवस्था में अन्य ध्रुवों का निर्माण करते हैं । डॉ. किसिंजर का भी मानना था कि “The World is Polycentric, not Uni-Polar…….”

3. साम्यवादी गुट का अवसान (Collapse of Communist Bloc):

वर्ष 1990-91 में एक महान् क्रान्ति हुई । पूर्वी यूरोप में साम्यवाद को कब्र में गाड़ दिया गया । 7 नवम्बर, 1989 को हंगरी में, 29 जनवरी, 1990 को पोलैण्ड में, 18 मार्च 1990 को पूर्वी जर्मनी में, 23 मई, 1990 को रोमानिया में 11 जून, 1990 को चेकोस्लोवाकिया में साम्यवादी शासन का अन्त हो गया ।

फरवरी, 1990 में सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति ने लेनिनवाद को ध्वस्त करने का क्रान्तिकारी मार्ग अपनाया । उसने सोवियत संविधान के विलोपन का संकल्प किया जिसमें सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के सत्ता पर एकाधिकार की गारण्टी दी गयी थी ।

साथ ही प्रशासन की कार्यकारी शक्ति (प्रशासन सत्ता) महासचिव के स्थान पर राष्ट्रपति को सौंपकर सरकार पर पार्टी के नियन्त्रण को निष्प्रभावी करने का निश्चय किया गया । 1 फरवरी, 1990 को सोवियत संसद ने मार्क्सवाद के एक मूल सिद्धान्त को स्पष्टत: अस्वीकार कर दिया ।

उसने घोषणा की- ”पार्टी का विचार है कि उत्पादन के साधनों के स्वामित्व सहित निजी सम्पत्ति का अस्तित्व देश के आर्थिक विकास की वर्तमान अवस्था के प्रतिकूल नहीं है ।”  साम्यवादी दलों के पतन के बाद बहुदलीय व्यवस्था स्वतन्त्र निर्वाचन, बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्था अपनाने से पूर्वी यूरोप और सोवियत गणराज्यों में स्वतन्त्रता की बहार आ गयी । अब उदार पूंजीवादी व्यवस्था से प्रतियोगिता करने वाली विचारधारा-जनित शक्ति गुट का अभाव नजर आता है । अब तो सभी मार्ग पूंजीवाद की ओर चल पड़े हैं ।

4. जर्मनी का एकीकरण (Unification of Germany):

3 अक्टूबर, 1990 को जर्मनी का एकीकरण हो गया । बिना युद्ध और संघर्ष के 45 वर्ष बाद दो राष्ट्रों का हर्षोल्लासपूर्ण एकीकरण आधुनिक इतिहास की महत्वपूर्ण घटना हे । अगस्त, 1961 में ‘बर्लिन की दीवार’ खड़ी होने के बाद तो वहां माइन्स बिछाकर तारों की बाड़ लगाई गयी थी ताकि कोई सीमा पार न कर सके, लेकिन 9 नवम्बर, 1989 को बर्लिन की दीवार तोड़ने से पूर्व बीच के लगभग 29 वर्षो में 1,78,182 लोग इसको लांघकर या इसके नीचे से दूसरी तरफ भाग निकले; 40,101 ने अपनी जान जोखिम में डाली और इस कोशिश में 192 लोगों ने अपनी जान गंवाई ।

जर्मनी के एकीकरण के प्रयत्नों में सबसे पहली सफलता उस समय मिली जब 9 नवम्बर, 1989 को बर्लिन को दो भागों में बांटने वाली ‘बर्लिन की दीवार’ को तोड़ने का काम शुरू हुआ । इसके बाद 18 मार्च, 1990 को पूर्वी जर्मनी में पहली बार स्वतन्त्र चुनाव हुए, फिर 1 जुलाई, 1990 को दोनों जर्मनियों का आर्थिक एकीकरण हुआ और दोनों देशों की मुद्रा एक हो गयी ।

4 अक्टूबर, 1990 को चांसलर हेल्मुट कोल के नेतृत्व में एकीकृत जर्मनी की नई सरकार पदारूढ़ हो गयी । क्षेत्रफल में फ्रांस से छोटा किन्तु जनसंख्या के लिहाज से 7.8 करोड़ लोगों का देश एकीकृत जर्मनी यूरोप में सबसे शक्तिशाली केन्द्र बन कर उभरा ।

5. गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की प्रासंगिकता (Relevance of NAM):

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था में आये परिवर्तनों से गुटनिरपेक्ष आन्दोलन (NAM) की प्रासंगिकता का प्रश्न विचारणीय मुद्दा बन गया है । शीत-युद्ध के अन्त, द्वि-ध्रुवीय विश्व व्यवस्था के स्थान पर एक-ध्रुवीय विश्व व्यवस्था के उदय सोवियत संघ के पतन, आदि से सहज ही में यह प्रश्न किया जाने लगा कि क्या निर्गुट आन्दोलन अप्रासंगिक तो नहीं हो गया है ?

खाड़ी संकट अफगान संकट तथा मार्च-अप्रैल, 2003 में ‘ऑपरेशन इराकी फ्रीडम’ के समय ‘नाम’ की कोई खास भूमिका नहीं रही । एक आलोचक के अनुसार- कहने को निर्गुट राष्ट्रों के आन्दोलन में अब भी 120 देश हैं पर वे हैं इस समय  बिल्कुल बेबस । उसमें पहले भी कोई विशेष दमखम नहीं है ।

पर शीत-युद्ध के चलते दोनों महाशक्तियां कम-से-कम इसकी बात अवश्य सुन लेती थीं । अब इस आन्दोलन की इतनी पूछ भी नहीं है । हां निर्गुट आन्दोलन की बैठकें बराबर हो रही हैं पर इसके सदस्य देशों की माली हालत इतनी नाजुक है कि इनके नेता हर समय विश्व बैंक से कर्जे की अर्जी लिए वाशिंगटन में मौजूद रहते हैं ।

विश्व बैंक में अकेले अमरीका का सर्वाधिक 20 प्रतिशत हिस्सा है । उसकी मर्जी के बिना वहां से कौड़ी भी नसीब नहीं हो सकती । इसलिए ये देश फिलहाल अमरीका के सामने खड़े होने की हैसियत में नहीं हैं । आर्थिक तंगी भ्रष्टाचार बढ़ती हुई गरीबी और जन-असन्तोष के कारण निर्गुट आन्दोलन के देश राजनीतिक अस्थिरता से पीड़ित हैं इसलिए यह आन्दोलन मृत है ।

फरवरी 1992 में गुटनिरपेक्ष देशों के विदेश मन्त्रियों की बैठक में मिस्र ने स्पष्ट रूप से अपील की थी कि इस आन्दोलन को समाप्त कर दिया जाना चाहिए । उसका तर्क था कि सोवियत संघ के विघटन और सोवियत ब्लाक तथा शीत-युद्ध की समाप्ति के बाद गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की प्रासंगिकता समाप्त हो गई है ।

कतिपय विशेषज्ञों का कहना है कि बदलती विश्व राजनीति में ‘नाम’ की राजनीतिक भूमिका की अपेक्षा ‘आर्थिक’ क्षेत्रों में भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है । नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना तथादक्षिण-दक्षिण सहयोग के लिए ‘नाम’ महत्वपूर्ण मंच साबित होगा ।

गुटनिरपेक्ष आन्दोलन समय के साथ हो रहे परिवर्तनों के अनुरूप अपनी प्राथमिकताओं को नया रूप देने का प्रयास कर रहा है । गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की भूमिका को नई स्फूर्ति देना एक ऐसा मुद्‌दा है जिसमें पिछले कुछ समय से आन्दोलन का ध्यान लगा हुआ है ।

आज गुटनिरपेक्ष आन्दोलन तेजी से बदलती हुई मौजूदा अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक परिस्थिति में विकासशील देशों के हितों के संवर्द्धन और सुरक्षा की तथा इसके विभिन्न मुद्‌दों पर परिदृश्यों को जोड़ने की आवश्यकता के प्रति विशेष रूप से सजग रहा है ।

6. संयुक्त राष्ट्र संघ का बढ़ता परिवार (Increasing Membership of U.N.O.):

1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्यों की संख्या 51 थी और आज 193 हो गयी है । आज न केवल संयुक्त राष्ट्र की सदस्य संख्या में वृद्धि हुई है, वरन् अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में उसकी सक्रियता भी बड़ी है । संयुक्त राष्ट्र, उसके 17 विशेष अभिकरण एवं 14 मुख्य कार्यक्रम और निधियां विश्व के किसी भी कोने के प्राय: सभी मानवों से सम्बद्ध हैं ।

हाल ही में ईरान-इराक युद्ध की समाप्ति में नामीबिया की स्वतन्त्रता में कुवैत को इराक से मुक्त कराने में कम्बोडिया में शान्ति बहाल कराने में तथा अफगानिस्तान में शान्ति बहाल कराने में संयुक्त राष्ट्र संघ की महत्वपूर्ण उपलब्धियां रही हैं तथापि मार्च-अप्रैल, 2003 में अमरीका ने सुरक्षा परिषद् की उपेक्षा करते हुए ‘ऑपरेशन इराकी फ्रीडम’ के अन्तर्गत इराक पर आक्रमण कर उसे अपने नियन्त्रण में ले लिया ।

इससे संयुक्त राष्ट्र की प्रतिष्ठा पर आच आयी और वह अप्रासंगिक दिखलायी पड़ा । इराक मसले ने साफ कर दिया कि संयुक्त राष्ट्र विश्व की एकमात्र महाशक्ति के लिए तभी तक प्रासंगिक है जब तक वह उसके जेबी संगठन के रूप में काम करने के लिए तैयार है ।

आजकल यह महसूस किया जा रहा है कि द्विध्रुवीय विश्व व्यवस्था की समाप्ति के बाद अमरीका के एकमात्र महाशक्ति रह जाने से संयुक्त राष्ट्र के सबसे महत्वपूर्ण अग सुरक्षा परिषद् का इस्तेमाल कूटनीतिक हथियार के रूप में किया जा रहा है अत : सुरक्षा परिषद् का आधार व्यापक बनाने और इसे अधिक लोकतान्त्रिक बनाने की तत्काल आवश्यकता है ।

आजकल सुरक्षा परिषद् के पुनर्गठन की मांग जोर पकड़ती जा रही है । संयुक्त राष्ट्र महासभा के अध्यक्ष रजाली इस्माइल की अध्यक्षता वाले कार्यदल ने सुरक्षा परिषद् की सदस्यता 15 से बढ़ाकर 24 करने का सुझाव दिया । नये 9 सदस्यों में 5 स्थायी व 4 अस्थायी हों, 5 नये स्थायी सदस्यों में से 2 जर्मनी एवं जापान हों तथा शेष 3 का चुनाव अफ्रीका, एशिया तथा लैटिन अमेरिका से किया जाए ।

21 मार्च, 2005 को महासचिव कोफी अन्नान ने संयुक्त राष्ट्र संघ में सुधार के लिए दो अलग-अलग विकल्पों वाली सुधार योजना का प्रारूप संयुक्त राष्ट्र महासभा में प्रस्तुत किया । सुरक्षा परिषद् के प्रस्तावित स्वरूप में सदस्यों की संख्या मौजूदा 15 से बढ़ाकर 24 करने का प्रस्ताव है ।

सदस्य संख्या में वृद्धि के लिए दो विकल्प:

प्रथम विकल्प:

स्थायी सदस्यों की संख्या में 6 की वृद्धि करने की सिफारिश । इसके अन्तर्गत अफ्रीका, एशिया और प्रशान्त, यूरोप व अमरीका से दो-दो सदस्य शामिल किए जाएं । अस्थायी सदस्यों की संख्या में तीन की वृद्धि का प्रस्ताव ।

दूसरा विकल्प:

स्थायी सदस्यों की संख्या पूर्ववत् 5 बनी रहे । इसके साथ-साथ आठ सदस्यों की एक नई श्रेणी बनाने का प्रस्ताव दिया है । इन सदस्यों का कार्यकाल चार वर्ष होगा । अस्थायी सदस्यों की संख्या (वर्तमान) में मात्र एक ही वृद्धि करने की सिफारिश ।

प्रारूप में आतंकवाद को इस प्रकार से परिभाषित किया गया है:

नागरिकों या असैनिकों की हत्या करने या गम्भीर रूप से शारीरिक नुकसान पहुंचाने के उद्देश्य से की गई कोई भी कार्यवाही जिसका   उद्देश्य जनता अथवा सरकार अथवा अन्तर्राष्ट्रीय संगठन को डराकर उसे कोई काम करने से रोकना हो तो वह आतंकवाद की श्रेणी में रखी जाएगी ।

7. सैनिक गुटबन्दियों का घटता महत्व (Decline of Military Pacts):

द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद सैनिक गुटबन्दियों का जाल बिछाने की प्रवृत्ति थी । उन्हीं दिनों नाटो सीटो सेण्टी वारसा पैक्ट जैसी सैनिक सन्धियां अस्तित्व में आयीं । अब इनका ह्रास प्रारम्भ हो गया है । वारसा पैक्ट का अन्त कर दिया गया है और नाटो भी मात्र नाम का संगठन बना हुआ है । नाटो के स्वरूप में बुनियादी परिवर्तन कर दिया गया है ।

शीत-युद्ध में कमी आने के साथ नाटो की भांति वारसा समझौता भी शिथिल होने लगा था । चीन समर्थक अल्वानिया 1968 में इस समझौते से पृथक् हो गया था । रोमानिया और चेकोस्लोवाकिया ने भी इसका विरोध करना प्रारम्भ कर दिया था । पोलैण्ड के श्रमिक आन्दोलन (अक्टूबर-नवम्बर, 1980) द्वारा भी इस समझौते का विरोध किया गया था ।

दोनों महाशक्तियों के बीच भी शीत-युद्ध समाप्त हो जाने तथा तनाव-शैथिल्य के युग का उदय होने के कारण सोवियत राष्ट्रपति गोर्बाच्योव ने वारसा पैक्ट तथा नाटो जैसे सैनिक गठबन्धनों को समाप्त करने का सुझाव दिया था । इसी सुझाव के अन्तर्गत वारसा समझौते के सैन्य गठबन्धन को 31 मार्च, 1991 को औपचारिक रूप से भंग कर दिया गया ।

8. नाटो का पूर्व की ओर फैलाव:

रूस ने 1991 में नाटो के साथ जुड़ने की इच्छा प्रकट की थी पर उस पर अमल नहीं हो सका । हेलसिंकी शिखर सम्मेलन में क्लिंटन और येल्तसिन के बीच जिन पांच समझौतों की घोषणा हुई उनमें नाटो और रूस के बारे में समझौता भी शामिल है ।

कहा गया है कि मध्य यूरोप और पूर्वी यूरोप के देशों को जो पहले वारसा संधि संगठन में शामिल थे नाटो का सदस्य बनाया जाएगा । राष्ट्रपति क्लिंटन की पहल पर पूर्वी यूरोप के तीन देशों-पोलैण्ड हंगरी और चेक गणराज्य-को जुलाई 1997 में नाटो का सदस्य बना दिया गया ।

विस्तार की इसी योजना के अन्तर्गत 29 मार्च, 2004 को नाटो में यूरोप के 7 नए देशों को सम्मिलित कर लिया गया । इन राज्यों में से 6 राज्य ऐसे हैं जो साम्यवादी गुट ‘तथा वारसा पैक्ट के सदस्य रह चुके हैं । ये राज्य हैं- बुल्गारिया लाटविया, एस्तोनिया रोमानिया लिथुआनिया तथा स्लोवाकिया ।

नाटो अब रूस के दरवाजे पर दस्तक दे रहा है । पूर्व सोवियत राष्ट्रपति गोर्बाच्योव के अनुसार नाटो के पूर्व की ओर फैलाव के बड़े गंभीर नतीजे निकल सकते हैं और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पश्चिमी देशों की यह पहली बड़ी भूल होगी । कोसोवो को सर्बिया से पृथक् करने की रणनीति के अन्तर्गत अमरीकी नेतृत्व में नाटो ने सर्बिया पर ग्यारह सप्ताह तक बमवारी की । नाटो की यह भूमिका सर्वत्र आलोचना का कारण बनी ।

9. बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्था (Market Economy):

सोवियत संघ से अलग हुए गणराज्यों तथा पूर्वी यूरोप के देशों ने लोकतन्त्र और मुक्त अर्थव्यवस्था की ओर अपने कदम बढ़ाने का निर्णय लिया है । सोवियत नागरिकों ने पिछले 75 वर्षों तक एक कड़वा फल चखा था । उन्होंने पूंजीवाद के विरुद्ध एक बेहतर तन्त्र बनाने के लिए कम्युनिज्य का निर्माण करने का प्रयल किया किन्तु उनका प्रयत्न अत्यन्त निराशाजनक रूप में असफल रहा ।

1989-91 के वर्षों में अनेक देशों का कम्युनिस्ट साम्राज्य ताश के महल की भांति धराशायी हो गया । सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के नागरिकों के सामने अब इसके अतिरिक्त कोई चारा न था कि वे साम्यवाद को अपने देश से किसी गंदगी की तरह साफ कर दें और अपनी उन्नति के लिए नवीन उपायों की खोज करें ।

मुक्त अर्थव्यवस्था या पूंजीतन्त्र ने अपनी क्षमता को पिछली दो शताब्दियों से सिद्ध किया हुआ है । अतीत और वर्तमान में अनेक प्रतिस्पर्द्धात्मक प्रणालियां पूंजीवाद की प्रणाली को समाप्त कर इसकी जगह लेने आती रहीं, किन्तु कोई भी प्रणाली इतनी उत्पादनशील सिद्ध नहीं हुई जितना कि मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था का सिद्धान्त और उसकी कार्यप्रणाली रही ।

ऐसा इसलिए हुआ कि पूंजीवाद (मुक्त अर्थव्यवस्था) एक (साम्यवाद जैसा कृत्रिम सिद्धान्त न होकर) प्राकृतिक शक्ति है, जो मानवीय स्वभाव में गहरी बैठी हुई है । इसके साथ ही पूंजीवाद में नई स्थितियों एवं वातावरण को बदलने का प्रशंसनीय लचीलापन है । आज जिस पूंजीवाद को हम अमेरिका या पश्चिमी यूरोप में देखते हैं वह पहले जैसा पुरातनपंथी न होकर बहुत उन्नत, प्रगतिशील और मानवीय आर्थिक प्रणाली के रूप में है ।

संक्षेप में, अब त्वरित आर्थिक विकास के लिए दुनिया के अधिकांश देशों ने पूंजीवादी मॉडल या बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्था का सिद्धान्त अपना लिया है । पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की विशेषताएं हैं-मुक्त व्यापार, प्रतियोगिता, स्वतन्त्र समझौते, बाजार तथा बाजारू समाज, आर्थिक क्षेत्र में राज्य का कम-से-कम नियन्त्रण, निजी सम्पत्ति और आर्थिक स्वतन्त्रता ।

10. यूरोप के एकीकरण की दिशा में बढ़ते चरण (Steps towards Integration of Europe):

विश्व-युद्ध के बाद यूरोप एक विभाजित यूरोप का परिचायक था । यूरोप कई ढंग से विभाजित हो गया था पूर्वी और पश्चिमी यूरोप पूंजीवादी और साम्यवादी यूरोप पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी नाटो और वारसा पैक्ट देश, अमरीकी समर्थक और सोवियत पिछलग्गू राष्ट्र, आदि ।

पिछले एक दशक से यूरोप के एकीकरण की प्रक्रिया काफी तीव्र हुई है । साम्यवाद और पूंजीवाद पूर्वी और पश्चिमी यूरोप नाटो और वारसा देशों का कृत्रिम विभाजन अब समाप्त हो गया है । यूरोपीय संघ का निर्माण प्रगति पर है और जनवरी, 1999 से संयुक्त यूरोपीय मुद्रा का औपचारिक चलन प्रारम्भ हो गया है ।

11 दिसम्बर, 1991 को सम्पन्न मेश्ट्रिच सन्धि यूरोपीय एकीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण सीमाचिह्न है । इस सन्धि के तहत् यूरोपीय समुदाय के देशों में समान मुद्रा का चलन हुआ । सन्धि के अनुसार समान मुद्रा के साथ-साथ 1 जनवरी, 1999 से एक यूरोपीय केन्द्रीय बैंक की भी स्थापना की गई ।

1 मई, 2004 को यूरोप के इतिहास की महत्वपूर्ण घटना हुई और 10 नए राज्यों ने यूरोपीय संघ की सदस्यता ग्रहण की जिनमें से आठ देश तो पूर्व सोवियत गुट के सदस्य रह चुके हैं । ये देश हैं- हंगरी, साइप्रस, चेक गणराज्य, एस्तोनिया, लाटविया, लिथुआनिया, माल्टा, पोलैण्ड, स्लोवाकिया और स्लोवेनिया । यूरोपीय संघ की सदस्य संख्या बढ्‌कर 25 हो गई । 29 अक्टूबर, 2004 को 25 सदस्यीय यूरोपीय संघ के पहले संविधान के मसौदे पर यूरोप के राजनेताओं ने रोम के कैयिटोलाइन हिल स्थित कैपिटाल हाल में हस्ताक्षर किए ।

संविधान को सदस्य राष्ट्रों की संसदों के अनुमोदन के पश्चात् 2007 तक लागू करने की योजना थी । किन्तु यूरोप की राजनीतिक एकता के मार्ग में एक बड़ा अवरोध 29 मई, 2005 को उस समय उअन्न हुआ जब यूरोपीय संघ के संविधान को फ्रांस की 55 प्रतिशत जनता ने जनमत संग्रह में ठुकरा दिया ।

उसके बाद नीदरलैण्ड की जनता ने भी जनमत संग्रह में संविधान को अस्वीकृत कर दिया । दोनों देश यूरोपीय संघ के जन्मदाता देश है । मई-जून, 2005 में यूरोपीय संघ की दुनिया ही बदल गई । संघ के जन्म देने वालों ने ही इसके संविधान को नकार दिया ।

फ्रांस और हॉलैण्ड में खासे घरेलू कारण भी रहे । दोनों देशों में चुनी हुई सरकारों के प्रति अच्छी-खासी नाराजगी है । फ्रांस में शिराक को नापसंद किया जा रहा है । हॉलैण्ड की क्रिश्चियन डेमोक्रेट सरकार भी आर्थिक मोर्चे पर नाकामी के कारण अलोकप्रिय है ।

हालांकि यूरोपीय संघ को पालने-पोसने में हॉलैण्ड का योगदान बड़ा है । यूरोपीय संघ के बजट में सर्वाधिक पैसा भी हॉलैण्ड ही लगाता रहा है लेकिन यूरोपीय संघ की एकल मुद्रा यूरो ने उसके व्यापार व्यवसाय को अपेक्षित फायदा नहीं पहुंचाया । यूरो के अतिरिक्त डच मतदाता यूरोपीय संघ में तुर्की के सम्भावित प्रवेश से भी नाराज हैं । नाराजगी तो रोमानिया बुल्गारिया को प्रवेश देने पर भी है लेकिन तुर्की के मामले में मुस्लिम विरोधी भावनाएं भी काम कर रही हैं ।

यूरोप के आम लोगों के मन में भविष्य का सवाल है । आगे क्या होगा ? क्या यूरोप का संविधान उनकी राष्ट्रीय पहचान को निगल जाएगा ? 13 दिसम्बर, 2007 को 27 सदस्यीय यूरोपीय संघ के सदस्यों ने संघ की निर्णय प्रक्रिया सुधार के लिए एक महत्वपूर्ण संधि पर लिस्बन में हस्ताक्षर किये ।

यह संधि उस प्रस्तावित संविधान के स्थान पर लायी गई, जिसे फ्रांस व नीदरलैण्ड में 2005 में जनमत संग्रह में खारिज कर दिया गया था । यह संधि 1 दिसम्बर, 2009 से लागू हो गयी है । यह संधि यूरोप के एकीकरण की दिशा में ऐतिहासिक कदम है ।

11. नव-उपनिवेशवाद (Neo-Imperialism):

विकासशील देश उपनिवेशवाद का विरोध कर रहे हैं और ‘नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था’ की स्थापना चाहते हैं, किन्तु हाल ही में ‘गैट’ के महानिदेशक आर्थर डुंकेल के प्रस्तावों से नव-उपनिवेशवाद का खतरा बढ़ गया है ।

परम्परागत रूप से ‘गैट’ केवल वस्तुओं के व्यापार से सम्बन्धित नियम ही बनाता रहा है जिनमें मुख्यत: निर्मित माल ही सम्मिलित है जबकि उरुग्वे वार्ता के आठवें दौर में परम्परा से हटकर वार्ता क्षेत्र में विस्तार किया गया तथा पहली बार वार्ता सूची में चार नये क्षेत्रों को शामिल किया गया ।

ये क्षेत्र हैं:

i. व्यापार से सम्बन्धित निवेश उपाय,

ii. बौद्धिक सम्पत्ति अधिकार के पहलुओं से सम्बन्धित व्यापार,

iii. सेवाओं में व्यापार तथा

iv. कृषि गैट वार्ता की सूची में यह क्षेत्र विकसित देशों के आदेश से शामिल किये गये ।

विकासशील देशों की दृष्टि में गैट समझौते का सर्वाधिक ऋणात्मक पहलू यह है कि वह केवल व्यापार तक ही सीमित नहीं है । इसमें कृषि सब्सिडी, बौद्धिक सम्पदा अधिकार (पैटेण्ट्स, कॉपीराइट, ट्रेडमार्क, आदि) विदेशी निवेश उपायों तथा सेवाओं को भी शामिल कर लिया गया है ।

इस समझौते में विकासशील देशों की मांगों तथा आवश्यकताओं पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया, केवल विकसित देशों के व्यापार प्रसार तथा हितों को ही आगे बढ़ाने की चेष्टा की गयी । गैट समझौते को स्वीकार कर लेने से विकासशील देशों के विकास उद्देश्यों पर विपरीत प्रभाव पड़ने लगा है ।

कृषि के क्षेत्र में पैटेण्ट अधिकार लागू हो जाने की दिशा में विकासशील देशों को विकसित देशों से कृषि सम्बन्धी तकनीकी खरीदने के लिए भारी मूल्य चुकाना होता है । गैट समझौता ‘नव-उपनिवेशवाद’ का प्रतीक है और यह विकासशील देशों पर ऐसी नीतियां थोपने लगा है कि वे अपने विकास उद्देश्यों को प्राप्त करने में असमर्थ होते जा रहे हैं ।

विश्व व्यापार संगठन एक पुलिसमैन की भूमिका अदा करने लगा है । यह एक विकराल व्यवस्था है जिसको अमेरिका जैसे विकसित देशों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने अपने हथियार के रूप में कायम किया है । सिएटल सम्मलेन में अमेरिका चाहता था कि पर्यावरण एवं श्रम मानक के मुद्‌दों पर कोई समझौता आरोपित कर दिया जाए ।

राष्ट्रपति क्लिंटन ने तो यहां तक धमकी दी कि यदि पर्यावरण एवं श्रम मानकों के मुद्‌दों को स्वीकार नहीं किया गया तो अमेरिका उन देशों के खिलाफ आर्थिक प्रतिबन्ध लगा देगा । मार्च, 2003 में इराक पर अमरीकी हमला आर्थिक साम्राज्यवाद का नया अमरीकी संस्करण है । इस बार अमरीका का इरादा इराक पर कब्जा कर एक पिट्‌ठू सरकार कायम कर तेल राजनीति अपनाने का है जिसका विश्वव्यापी असर  होगा ।

12. राष्ट्रपति बुश की नई विश्व व्यवस्था (New World Order):

खाड़ी युद्ध की समाप्ति के बाद राष्ट्रपति बुश ने ‘नई विश्व व्यवस्था’ के निर्माण की बात कही थी किन्तु उस समय इनकी ‘नई विश्व व्यवस्था’ की अवधारणा स्पष्ट नहीं थी । ऐसा लगता है कि उनकी नई विश्व व्यवस्था का अर्थ है संयुक्त राष्ट्र संघ विश्व बैंक तथा अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी संस्थाओं पर अमरीकी वर्चस्व स्थापित करना; अणु अप्रसार सन्धि पर फ्रांस चीन और भारत जैसे देशों को हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य करना; पश्चिम एशिया समस्या का समाधान अमरीकी धौंस से कराना; भारत को रॉकेट टेक्नोलॉजी देने की मंशा रखने वाले रूस को धमकी देना ।

आज अमरीका समूचे विश्व को आर्थिक सुधारों के नाम पर पूंजीवादी विकास मार्ग पर धकेलने का मानस बना चुका है । अमरीकी नीतियों का विरोध करने वाले राष्ट्र को आर्थिक और वित्तीय कठिनाइयां झेलने के लिए तैयार रहना होगा ।

चाहे वह गैट समझौतों के नाम डुंकेल के प्रस्ताव हों या धारा 301 से सुसज्जित श्रीमती कार्ला हिल्स की धमकियां या फिर अणु अप्रसार सन्धि पर हस्ताक्षर करने के लिए भारत पर डाला जा रहा दबाव हर क्षेत्र में थोड़ी-सी गहराई में उतरकर देखने का प्रयास किया जाये तो सिर्फ एक ही तथ्य सामने आता है कि अपने व्यापारिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए अमरीका किसी भी सीमा तक जा सकता है ।

गैट समझौते से ऐसा नहीं है कि सिर्फ भारत या विकासशील देश ही त्रस्त हों । इसके कुछ उपबन्धों से यूरोपीय समुदाय के देशों सहित ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड जैसे कृषि-प्रधान देश भी परेशान हैं । कृषि पर से सब्सिडी हटाने के डुंकेल प्रस्ताव का सबसे मुखर विरोध जर्मनी में हुआ ।

”चाहे गैट समझौता हो या अणु अप्रसार सन्धि चाहे प्रक्षेप्रास्त्र टेक्नोलॉजी नियन्त्रण व्यवस्था हो या विश्व बैंक अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष या फिर संयुक्त राष्ट्र ही क्यों न हो, ये सारी संस्थाएं आज किसी-न-किसी तरह अमरीका की जेबी संस्थाओं में परिणत हो चुकी हैं ।” कोसोवो और इराक मसले पर अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र संघ को एक तरफ रख दिया सुरक्षा परिषद् को दरकिनार कर दिया और संयुक्त राष्ट्र संघ की सम्प्रभुता को चोट पहुंचायी ।

13. यूरोप में विधटन की प्रवृत्ति:

पिछले वर्षों के दौरान भूतपूर्व सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देशों में साम्यवाद की समाप्ति और उदारीकरण एवं लोकतन्त्रीकरण की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला है । सोवियत संघ टूटकर स्वतन्त्र राष्ट्रों के रूप में विभाजित हो गया है ।

दूसरा ऐसा देश यूगोस्लाविया है जो पहले एक मजबूत राष्ट्र था और विश्वव्यापी गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का अगुआ था, लेकिन वह क्रोशिया, स्लोवेनिया, बोस्निया- हर्जेगोविना, मेसिडोनिया तथा यूगोस्लाविया (सर्बिया-मोण्टेनेग्रो) जैसे छोटे राज्यों में विभक्त हो गया है ।

खण्डित यूगोस्लाविया का नाम बनाये रखने की भूल सर्बिया ने की थी । मोण्टेनेग्रो के साथ मिलकर वह अपने आपको ‘यूगोस्लावी संघ’ कहलाता था । अमरीका को यह स्वीकार नहीं था अत: कोसोवो को सर्बिया से पृथकृ करने की रणनीति के अन्तर्गत अमरीकी नेतृत्व में नाटो ने सर्बिया पर ग्यारह सप्ताह तक बमबारी की ।

4 फरवरी, 2003 से लागू नए संविधान के अन्तर्गत यूगोस्लाविया का नया नाम ‘सर्बिया एवं मोण्टेनेग्रो’ कर दिया गया । नए संविधान के अन्तर्गत सर्बिया एवं मोण्टेनेग्रो को एक संघ के रूप में बंधे रहने की बाध्यता तीन वर्षों के लिए रखी गई और 3 जून, 2006 को मोंटेनेग्रो ने स्वयं को स्वतन्त्र एवं सम्प्रभु ‘रिपब्लिक ऑफ मोंटेनेग्रो’ घोषित कर दिया ।

वर्तमान सर्बियाई प्रान्त कोसोवो भी स्वतन्त्र राज्य बनने के लिए छटपटाने लगा । 17 फरवरी, 2008 को कोसोवो ने अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी जिसे अब तक 75 संयुक्त राष्ट्र सदस्य देशों ने मान्यता प्रदान कर दी है ।

विघटन की इस प्रवृति ने पड़ोसी चेकोस्लोवाकिया को भी अपनी चपेट में ले लिया जहां आर्थिक असमानताओं और जातीय भेदभावों के कारण विघटन की मांग को बल मिला । चेक और स्लोवाक के नेताओं में (19 जून, 1992 को) इस बारे में समझौता हो गया कि 75 वर्ष पुराने चेकोस्लोवाकिया परिसंघ को विभाजित कर दिया जाये ।

अत: जनवरी, 1993 में भूतपूर्व चेकोस्लोवाकिया का औपचारिक रूप से दो गणराज्यों चैक गणराज्य (एक करोड़ जनसंख्या) और स्लोवाकिया (लगभग 50 लाख जनसंख्या) में विभाजन हो गया । महत्वपूर्ण बात यह है कि विभाजन का काम शान्तिपूर्ण ढंग से पूरा हो गया ।

14. नये संगठनों का आविर्भाव:

सीटो, वारसा पैक्ट जैसे संगठनों के पराभव के साथ-साथ राष्ट्रों के मध्य आपसी सहयोग के नये संगठनों (समूहों) का निर्माण हुआ है । इनमें ‘सार्क’, आसियान, ग्रुप-8,  ग्रुप-15, ग्रुप-24, ‘एशिया प्रशान्त आर्थिक सहयोग संगठन (एपेक)’, नाफ्टा (उत्तरी अमरीका मुक्त व्यापार समझौता), हिमतक्षेस (हिन्द महासागर तटीय क्षेत्रीय सहयोग संगठन), बिम्सटेक (बांग्लादेश, भारत, श्रीलंका, थाईलैण्ड, म्यांमार, भूटान व नेपाल द्वारा निर्मित क्षेत्रीय सहयोग समूह), डी-8 (टर्की की पहल पर 8 विकासशील इस्लामी राष्ट्रों द्वारा पारस्परिक आर्थिक सहयोग हेतु निर्मित समूह), शंघाई-5 (अब शंघाई-6), ‘एशिया कोऑपरेशन डायलॉग (ACD)’, जी-3 विश्व सामाजिक मंच (WSF), खाड़ी सहयोग परिषद (GCC), यूनासुर जी-20, ब्रिक्स आदि के नाम उल्लेखनीय हैं ।

नाटो, वारसा पैक्ट सीटो आदि सैन्य संगठन जो शीत युद्ध की उपज थे अब अप्रासंगिक हो गये हैं और उनका स्थान नाफ्टा साफा जैसे आर्थिक स्वरूप के संगठनों ने ले लिया है । इस समय डक्यूटीओ के अन्तर्गत विश्व व्यापार वार्ता के अवरुद्ध होने के कारण विदेश व्यापार के द्विपक्षीय एवं मुउका व्यापार समझौते (एफटीए) एकाएक बढ़ते हुए दिखाई दे रहे हैं ।

यह एक अच्छी बात है कि डक्यूटीओ कुछ शर्तों के साथ सीमित दायरे वाले एफटीए की स्वीकृति भी देता है । एफटीए में कुछ देशों के समूहों द्वारा शेष विश्व की तुलना में आपस में अधिक मुक्त तरीके से व्यापार किया जाता है । इन समझौतों के तहत दो या दो से ज्यादा देश आपसी व्यापार में कस्टम और अन्य शुल्क सम्बन्धी प्रावधानों में एक-दूसरे को विशेष रियायतें देते हैं ।

विश्व में इस समय लगभग 400 एफटीए दिखाई दे रहे हैं । यह कोई छोटी बात नहीं है कि एफटीए के तहत यूरोपीय देशों ने तो अपना एक साझा बाजार बनाने के बाद अपनी राष्ट्रीय मुद्राओं को तिलांजलि तक दे डाली है । इसी तरह उत्तरी अमरीका के देशों ने नाफ्टा का गठन किया और अब वे अमरीकी मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाने के लक्ष्य के साथ दिन प्रतिदिन आगे बढ़ते ही जा रहे हैं ।

विश्व बैंक के एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि नाफ्टा ने इसके सदस्य देश मैक्सिको को 1994 में भारी वित्तीय संकट से बाहर निकलने में मदद की थी । ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहां एफटीए से सदस्य देश लाभान्वित होते दिखाई देते हैं ।

15. उत्तरी और दक्षिणी कोरिया एकीकरण पर सहमति:

14-15 जून, 2000 को दक्षिणी और उत्तरी कोरिया ने एकीकरण और मेल-मिलाप के ऐतिहासिक समझौते पर हस्ताक्षर किए । दोनों देशों के बीच लगभग आधी सदी से चले आ रहे शीतयुद्धकालीन तनाव को कम करने और विभाजित परिवारों को मिलाने व विभिन्न क्षेत्रों में आदान-प्रदान पर भी सहमति हुई ।

उत्तरी कोरिया के राष्ट्रपति जोंग ने प्योंगयांग में दक्षिणी कोरिया के राष्ट्रपति हा का गर्मजोशी से स्वागत करते हुए कहा कि ‘राष्ट्रीय पुनर्मिलन, मेल-मिलाप और शान्ति का सूर्य उग चुका है ।’ ऐतिहासिक दस्तावेज के प्रस्तावों में दोनों कोरिया के बीच सैनिक हाट लाइन स्थापित करना तथा दोनों के बीच में सैनिक रहित सीमा पर रेलवे क्रॉसिंग की व्यवस्था का उल्लेख भी किया गया है ।

दोनों देशों के बीच भावी व्यावसायिक परियोजनाओं के लिए वैधानिक एवं प्रक्रियात्मक कार्यप्रणाली शीघ्र प्रारम्भ की जाएगी । शिखर वार्ता में एकीकरण की दिशा में कदम बढ़ाए जाने पर सहमति के समाचारों से सन् 1945 में दोनों देशों के निर्माण से विभाजित परिवारों को आशा की किरण दिखाई दी है । अमेरिका ने प्रसन्न होकर कहा कि वह उत्तरी कोरिया के खिलाफ 50 वर्ष पूर्व लगाए गए आर्थिक-प्रतिकधों को हटा देने के बारे में शीघ्र घोषणा करेगा ।

16. दक्षिण का उदय:

जब 2008-09 के वित्तीय संकट में विकसित अर्थव्यवस्थाओं ने बढ़ना बन्द कर दिया तब से दक्षिण के उदय की चर्चा होने लगी है । आज दक्षिण का उदय अपनी गति और आकार में अभूतपूर्व है । 21वीं सदी में दक्षिण का उदय सार्वजनिक स्वास्थ्य शिक्षा परिवहन दूरसंचार और राष्ट्रीय अभिशासन में बड़ी प्रगति के साथ-साथ हुआ है । इसके मानव विकास पर गहरे प्रभाव पड़े हैं अत्यधिक गरीबी में गुजर-बसर कर रहे लोगों का अनुपात 1990 के 43.1 प्रतिशत के मुकाबले 2008 में घटकर 22.4 प्रतिशत रह गया ।

अकेले चीन में ही 50 करोड़ से ज्यादा लोग गरीबी से बाहर निकल पाए । आज कुल वैश्विक आर्थिक निर्गत में दक्षिण की हिस्सेदारी लगभग आधी है जो 1990 के एक-तिहाई के मुकाबले काफी अधिक है । आठ प्रमुख विकासशील देशों-अर्जेन्टीना, ब्राजील, चीन, भारत, इण्डोनेशिया, मैक्सिको, दक्षिण अफ्रीका और तुर्की का कुल सकल घरेलू उत्पाद अब अमेरिका के सकल घरेलू उत्पाद के बराबर हो चुका है ।

17. अरब देशों में जन क्रान्तियां बनाम तानाशाही:

मिस्र की जनता ने मात्र 18 दिन के भीतर वर्षों की तानाशाही की सरकार का अन्त कर नया इतिहास रचा है । ट्‌यूनीशिया की जनक्रांति से प्रेरित मिस्र की इस क्रांति ने सिर्फ 30 वर्षों से सत्ता पर काबिज राष्ट्रपति मोहम्मद होली सईद मुबारक को हटाया ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में तानाशाही के खिलाफ लड़ने के लिए जनता को एक नया रास्ता भी दिखाया ।

25 जनवरी, 2011 से शुरू हुआ अहिंसक और जनवादी आंदोलन निरंतर आगे बढ़ता रहा । काइरो सहित मिस्र के लगभग सभी प्रमुख शहरों पर आंदोलनकारी छात्र नौजवान और मजदूर-किसानों ने राष्ट्रपति होली मुबारक के शासन के खिलाफ निर्णायक लड़ाई का आगाज कर दिया ।

इस आन्दोलन के पहलुओं पर गौर करें तो इसकी सफलता के तीन कारण सामने आते हैं । एक तो यह आंदोलन सुगठित तरीके से शुरू हुआ । इसमें आम जनता की भागीदारी थी । दूसरा आम जनता के साथ मिस्र की सेना ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।

उसने कुछ पल के लिए सख्ती जरूर की लेकिन जब उसे जनशक्ति का अहसास हुआ तो वह भी अघोषित रूप से जनता के साथ हो ली । होली के त्यागपत्र के बाद मिस्र में सैन्य शासन लागू कर दिया गया । सेना ने सितम्बर 2011 में आम चुनाव कराने का वायदा किया । बाद में ट्‌यूनिशिया में भी उबाल आया ।

वहीं लीबिया में कर्नल गद्दाफी के खिलाफ जन आन्दोलन ने इस खतरनाक तानाशाह को उखाड़ फेंका । फिलहाल वह निरंकुशता की हदें पार कर अपने ही देश के लोगों की लाशें बिछाने पर उतारू है । अमरीका और पश्चिमी देशों को खुली चुनौती दे रहा है ।

आज यमन, ईरान, सऊदी अरेबिया, हर जगह तानाशाहों के खिलाफ गुस्सा चरम पर है । आर्थिक विकास का न होना युवाओं के सामने रोजगार के अवसर न होना तानाशाहों का बर्बरतापूर्ण आक्रामक रवैया जिसने कभी किसी विरोध के स्वर को पनपने ही नहीं दिया आदि कुछ ऐसे कारण हैं जिन्होंने मौजूदा हालात को जन्म दिया ।

इन तानाशाहों का ऐसा रवैया पश्चिमी यूरोप और अमरीका जैसे देशों ने इसलिए स्वीकार कर लिया क्योंकि उनका आकलन था कि ऐसा न करने की हालत में अलकायदा जैसे कट्टरपंथी तालिबान इन देशों की सत्ताओं पर काबिज हो सकते हैं ।

ईरान जैसे देश में तो कमोबेश यही स्थिति रही जहां तानाशाह व तालिबानी मानसिकता एक साथ स्थापित हो गई । पश्चिम की इस मजबूरी का इन तानाशाहों ने भरपूर लाभ उठाया । यहां तक कि इन मुल्कों की सेना भी तानाशाहों के साथ मिलकर चली और भ्रष्टाचार में लिप्त होकर देश के संसाधनों का जमकर मजा लूटा । जनता पिसती रही फिर भी उसने बगावत की हिम्मत नहीं की ।

इस बार जो बगावत हुई है उसका नेतृत्व न तो तालिबान के पास है और न ही सत्ता के किसी उल्लेखनीय प्रबल विरोधी के पक्ष में । यह आन्दोलन तो स्वस्कूर्त था जिसमें सबसे ज्यादा सक्रिय पड़ी-लिखी युवा पीढ़ी रही ।

मिस्र में कामयाबी तो मिल गई और शायद बाकी देशों में भी आवाम को ऐसी कामयाबी मिल जाए लेकिन यह कामयाबी लोकतंत्र को स्थापित कर पायेगी इसमें सन्देह है क्योंकि कट्टरपंथी इन देशों को प्रजातांत्रिक देश नहीं बनने देना चाहते इसलिए वे परदे के पीछे से खेल खेलते हुए सत्ता के शिखर पर पैदा हो रहे शून्यों को भरने का प्रयास करेंगे । यह एक भयावह स्थिति होगी क्योंकि तब हालत पहले से भी बदतर हो जायेंगे ।

दरअसल समस्या यह है कि पांच-छह दशकों से तानाशाही झेलते हुए इन मुल्कों की आवाम को लोकतंत्र का कोई अनुभव नहीं है । न तो यहां लोकतांत्रिक संस्थाएं कभी पनप पाई हैं और न ही उनको विकसित करने की समझ और अनुभव वाले लोग वहां मौजूद हैं इसलिए डर यह भी है कि सत्ता से हटा दिये गये तानाशाहों के हुबरदार लोग इस नई प्रक्रिया की कमान संभाल लें और इस तरह एक बार फिर वही चौकडिया पिछले दरवाजे से सत्ता पर काबिज हो जायें । यह इसलिए भी ज्यादा संभव है, क्योंकि इन मुल्कों की सेना लोकतंत्र बर्दाश्त करना नहीं चाहेगी ।

बहुध्रुवीयता की ओर बढ़ते कदम:

पिछले कुछ वर्षो से ऐसे संकेत हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति एक-दूसरे ही मार्ग पर चल पड़ी है और 21वीं सदी का दूसरा दशक (2010-2019) विश्व राजनीति की एक अलग ही तस्वीर प्रस्तुत करने जा रहा है । अब संयुक्त राज्य अमरीका के वर्चस्ववाद के विरुद्ध स्वर तेज और मुखर होने लगे हैं- एकध्रुवीय विश्व अवधारणा को प्रतिस्थापित करने के लिए बहुध्रुवीय विश्व की अवधारणा जोर पकड़ने लगी है ।

अमरीकी वर्चस्व को चुनौती देने का कार्य उसके पुराने प्रतिद्वंद्वी रूस के द्वारा ही प्रारंभ किया गया है । पुतिन के नेतृत्व में एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में रूस का पुनरोदय हुआ है पुनर्जीवित शक्तिशाली रूस बहुध्रुवीय विश्व की स्थापना के अभियान में सक्रिय है ।

रूस की पहल पर वर्ष 2002 में न्यूयार्क में रूस, चीन तथा भारत के विदेश मंत्रियों की पहली बैठक हुई और 2005 में काडीवोस्टक में तीनों देशों के विदेश मंत्री अलग से मिले तथा 2006 में तीनों राष्ट्रों के शीर्ष नेतृत्व का शिखर सम्मेलन सेंट पीर्ट्सबर्ग में हुआ ।

इसी दौर में बहुध्रुवीयता को बढ़ाने तथा अमरीकी वर्चस्ववाद पर विराम लगाने के लिए रूस ने शंघाई सहयोग संगठन एवं कैस्पियन सागरीय राष्ट्रों का मंच भी स्थापित कर लिया । बहुध्रुवीयता की दिशा में सबसे कारगर कदम 16 मई, 2008 को येकटरिनबर्ग में उठाया गया, क्योंकि उस दिन रूस के इस शहर में रूस, चीन तथा भारत के साथ ब्राजील भी बैठक में सम्मिलित हुआ और इस तरह एक चतुर्गण मित्रता की नींव      पड़ी ।

बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था की दिशा में चतुर्गण मित्रता एक ऐतिहासिक सीमा  चिह्न सिद्ध हो सकती है क्योंकि विश्व की जनसंख्या का 40 प्रतिशत इन चार देशों में ही निवास करता है तथा वर्ष 2020 तक इनके सकल घरेलू उत्पाद का योग विश्व के सर्वाधिक विकसित सफ-8 के सकल घरेलू उत्पाद से अधिक हो जाना तय है । 21वीं शताब्दी के पहले दशक ने तथाकथित एकध्रुवीय शिखर को हिला कर रख दिया ।

अमरीका के रियल एस्टेट गुब्बारे के फूटने और उसके फलस्वरूप सामने आई दोषपूर्ण जोखिम भरी व्यवस्था तथा विचारहीन निवेश ने जिसने इस गुब्बारे को और उससे पहले के सात वर्षों में बाकी विश्व की अर्थव्यवस्था को इतना फुला दिया समग्र तौर पर एक ऐसी मंदी ला दी जो ‘महा मंदी’ के बाद की किसी भी दूसरी ऐसी घटना से ज्यादा गंभीर थी । आर्थिक मंदी के इस दौर में भारत और चीन की अर्थव्यवस्थाओं ने तमाम आशंकाओं को झुठलाते हुए विकास की तेज गति कायम रखी ।

जब विश्व में तमाम सुदृढ़ आर्थिक व्यवस्था वाले देश अपनी विकास की दर को बनाये रखने के लिए संघर्ष करते दिखे वहीं भारत और चीन की अर्थव्यवस्था की विकास दर क्रमश: 6 प्रतिशत और 9 प्रतिशत से ज्यादा बनी रही ।

अत: आने वाले दशक में भारत और चीन उदीयमान शक्तियां हैं । सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत और चीन के दबदबे को अब विशेषज्ञ ही नहीं बल्कि आम अमरीकी भी मान रहे हैं । एक सर्वे में यह बात साफ उभरकर आई है कि विश्व का अगला बिल गेट्‌स भारत या चीन से होगा । आज अपनी मजबूत आर्थिक और सैन्य छवि के बावजूद अमरीका एक कर्जदार राष्ट्र है और भारत एवं चीन की ओर देख रहा है ।

संक्षेप में, 21वीं शताब्दी का दूसरा दशक विश्व व्यवस्था के अनुक्रम में बदलाव का संकेत देता है (एक ध्रुवीयता को दरकिनार कर बहुध्रुवीयता के वरण का शंखनाद करता है ।) विश्व अर्थव्यवस्था में अमरीका के लम्बे एकाधिकार को चुनौती देते हुए चीन, भारत और ब्राजील जैसे तीसरी दुनिया के राष्ट्रों की महाशक्ति की दावेदारी प्रस्तुत करता है ।

एशिया के दो दिग्गज देशों की बढ़ती आर्थिक और राजनीतिक ताकत का अंदाजा अन्तर्राष्ट्रीय बैठकों में उनकी मौजूदगी से स्पष्ट होता है । इससे अन्तर्राष्ट्रीय सत्ता के पारंपरिक समीकरण बदल रहे हैं और यह विश्व इतिहास में एक निर्णायक मोड़ साबित हो सकता है ।

निष्कर्ष:

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति गतिशील है, उसमें द्रुतगति से बदलाव आ रहा है । जहां एक ओर पिछले दो दशकों में नई प्रवृत्तियां उभरी हैं वहीं दूसरी ओर मुद्दे भी बदले हैं । पश्चिमी एशिया में अरब-इजराइल शान्ति वार्ता, दक्षिण-दक्षिण सहयोग, अणु अप्रसार सन्धि, सी टी बी टी, नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मांग, यूरोप का एकीकरण, गुटनिरपेक्ष, आन्दोलन की प्रासंगिकता, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का पुनर्गठन, संयुक्त राष्ट्र संघ में सुधार, संयुक्त राष्ट्र का वित्तीय संकट, अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद, रूस-चीन सहयोग, पश्चिमी यूरोप में वामपंथ का ज्वार, मेस्ट्रिच सन्धि, मानवाधिकारों की सुरक्षा, फ्रांस और नीदरलैण्ड के मतदाताओं द्वारा जनमत संग्रह में यूरोपीय संघ के संविधान को अनुमोदन न करके यूरोपीय एकता के प्रयास को झटका देना; रूस द्वारा क्योटो संधि का अनुमोदन; जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित पर्यावरणीय मुद्दे आदि कतिपय ऐसे प्रमुख मुद्दे हैं जिन पर विस्तार से विचार किये जाने की आवश्यकता है ।

गैट सन्धि पर हस्ताक्षर के साथ ही मुक्त व्यापार का मार्ग और अधिक प्रशस्त हो गया । खुले विश्व व्यापार के इस दौर में भौगोलिक सीमाएं अप्रभावी हो गईं । विश्व के आठ बडे औद्योगिक देशों के समूह-8 के नेता भारत और चीन को अपने खेमे में शामिल करने पर विचार कर रहे हैं ।

जून, 2004 की सवान्ना (जार्जिया) में सम्पन्न शिखर बैठक के बाद इटली के प्रधानमन्त्री सिल्वियो बुर्लुस्कोनी ने कहा कि इन देशों के बिना हमारे लिए भावी अर्थव्यवस्था के बारे में बात करने का कोई अर्थ नहीं  है ।

सेमुअल पी. हंटिंगटन के अनुसार शीतयुद्धोत्तर विश्व 7-8 सभ्यताओं के वर्चस्व वाला विश्व है । अन्तर्राष्ट्रीय मामलों के प्रमुख मुद्‌दे सभ्यताओं के मतभेदों में उलझते प्रतीत होते है । पश्चिमी दुनिया से गैर-पश्चिमी दुनिया की तरफ शक्ति का बहाव हो रहा है ।

विश्व राजनीति बहुध्रुवीय और बहुसांस्कृतिक बनती जा रही है । विश्व राजनीति सांस्कृतिक आधार पर पुनर्गठित हो रही है । हम सभ्यताओं के टकराव (The Clash of Civilizations) की ओर बढ़ रहे हैं । फरवरी, 2007 के दूसरे सप्ताह में चूनिख में आयोजित एक सुरक्षा सम्मेलन में रूस के राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन ने जब अमरीकी विदेश नीति पर सीधा निशाना साधा तब से सामरिक हलकों में यह बहस छिड़ी हुई है कि क्या दुनिया फिर से एक नए शीत युद्ध की ओर बढ़ रही है ।

पिछले पन्द्रह वर्षों में यह पहला मौका है जब रूस के राष्ट्रपति ने अमरीका की नीतियों की खुलकर आलोचना कर अमरीका को चुनौती देने का साहस किया है । कथित एकध्रुवीय विश्व में अमरीकी दादागिरी को आड़े हाथों लेते हुए रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने कहा कि अमरीकी नीतियों से दुनिया सुरक्षित होने की बजाय और अरक्षित महसूस करने लगी है ।

आज हम देख रहे हैं कि सेना का बेलगाम इस्तेमाल किया जा रहा है । अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में सेना के अधिक प्रयोग से दुनिया स्थायी संघर्ष की ओर अग्रसर है । उन्होंने अमरीका का नाम लेकर यह सवाल किया कि अमरीका ने जिस तरह हर क्षेत्र में अपनी राष्ट्रीय सीमाओं का उल्लंघन किया है उससे कौन खुश है ? पुतिन नाटो पर काफी बरसे ।

दरअसल सोवियत संघ और वारसा संधि के विघटन के बाद अमरीका ने रूस के बिना नाटो का विस्तार करने की नीति अपनाई । बोरिस येल्तसिन ने अमरीका के साथ मधुर सम्बन्ध बनाए रखने में ही रूस की भलाई समझी जिसे अमरीका ने रूस की कमजोरी माना । सबसे पहले हंगरी पोलैंड और चेक गणराज्य को 1997 में नाटो में शामिल किया गया ।

इसके बाद 2002 में बुल्गारिया, रोमानिया और अप्रैल, 2009 में अल्वानिया और क्रोशिया को नाटो की सदस्यता प्रदान की गई । वर्तमान में यूक्रेन और जॉर्जिया को नाटो में शामिल करने के लिए राजी कर लिया गया है ।