Read this essay in Hindi to learn about the three main approaches to the study of international relations.
Essay # 1. आदर्शवादी दृष्टिकोण या उपागम (Idealist Approach):
आदर्शवादी दृष्टिकोण (उपागम) का समूचा चिन्तन समाज में विकासात्मक प्रगति होने के व्यापक विचार के आधार पर खड़ा है । इस विचार का जन्म 18वीं शताब्दी में हुआ था और आमतौर से यह माना जाता है कि अमरीकन और फ्रेंच क्रान्तियों का मुख्य प्रेरणास्त्रोत आदर्शवाद ही था ।
सन् 1795 में कौण्डरसेट ने अपने ग्रन्थ में एक ऐसी विश्व-व्यवस्था की कल्पना की जिसमें न युद्ध के लिए कोई स्थान था न विषमता के लिए और न अत्याचार के लिए । उसने यह विश्वास प्रकट किया कि मनुष्य अपनी बुद्धि शिक्षा और विज्ञान के उपयोग से इतनी उन्नति कर लेगा कि भावी मानव समाज में हिंसा हत्या, अनैतिकता सत्तालोलुपता और शक्ति के लिए संघर्ष की भावना सर्वथा लुप्त हो जाएगी ।
आदर्शवाद भविष्य के ऐसे अन्तर्राष्ट्रीय समाज की तस्वीर पेश करता है जो शक्ति राजनीति अनैतिकता और हिंसा से सर्वथा मुक्त हो । इसकी यह मान्यता हे कि वर्तमान समय के अन्तर्राष्ट्रीय संघर्षों का निवारण शिक्षा और सुधार के प्रयोग से हो सकता है । अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में आदर्शवादी दृष्टिकोण का सम्बन्ध ‘क्या होना चाहिए’ से है ।
आदर्शवादी चिन्तक इन प्रश्नों पर विचार करते रहे हैं कि विश्व में न्याय और शान्ति कैसे स्थापित की जा सकती है युद्धों का उन्मूलन कैसे किया जा सकता है अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग किस प्रकार विकसित हो सकता है शक्तिशाली राज्यों द्वारा शक्तिहीन राज्यों का शोषण किस प्रकार समाप्त किया जा सकता है, आदि । आदर्शवादी दृष्टिकोण संस्थावादी तथा बिधिबादी अध्ययन की ओर प्रवृत्त है ।
अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की जटिल समस्याओं के समाधान के लिए यह तीन बातों पर बल देता है:
प्रथम:
राष्ट्रों को अपने अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार में नैतिक सिद्धान्तों पर चलना चाहिए और परम्परागत शक्ति राजनीति से दूर रहने का यल करना चाहिए ।
द्वितीय:
शक्ति राजनीति के प्रबल पोषक सर्वाधिकारवादी दल रहे हैं । अत: ऐसे दलों के अस्तित्व को समाप्त करने का प्रयल करना चाहिए ।
तृतीय:
विश्व सरकार की स्थापना करके शक्ति राजनीति को सदैव के लिए दफना देना चाहिए । आदर्शवादी अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को स्वयं में साध्य न मानकर केवल एक साधन मानते हैं, जिसका उद्देश्य अन्तर्राष्ट्रीय न्याय का विकास करना है । जिस प्रकार राज्य का उद्देश्य नागरिकों की स्वतन्त्रता, समानता और कल्याण की वृद्धि करना है उसी प्रकार वे मानते हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में इन्हीं मानवीय लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए विदेश-नीति का संचालन होना चाहिए ।
प्रथम विश्वयुद्ध के उपरान्त किए गए अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के अध्ययनों तथा अनुसन्धानों में झुकाव आदर्शवादी-संस्थावादी तथा विधिवादी अध्ययनों की ओर रहा । सर अल्फ्रेड जिमने का राष्ट्र संघ पर किया गया अनुसन्धान, फिलिप नोएल बेकर का विश्व निःशस्त्रीकरण पर किया गया शोध, जेम्स शॉटवेल का युद्ध को अवैध घोषित करने सम्बन्धी विचार इस युग के प्रमुख शोधकार्य माने जाते हैं ।
राष्ट्र संघ, जेनेवा प्रोटोकॉल, केलॉग-ब्रिआं पैक्ट आदि पर आदर्शवादी दृष्टिकोण का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है । उस समय यह मान्यता प्रचलित थी कि किसी सबल अन्तर्राष्ट्रीय संस्था की स्थापना करने तथा अन्तर्राष्ट्रीय विधि के पालन से अनेक जटिल अन्तर्राष्ट्रीय विवादों का समाधान हो सकता है ।
संक्षेप में, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का आदर्शवादी दृष्टिकोण राजनीतिक नेतिकता, अन्तर्राष्ट्रीय लोकमत, विश्व संघवाद विश्व सरकार के आदर्श के साथ बंधा है । यह शान्ति और न्यायपूर्ण विश्व-व्यवस्था में विश्वास करता है ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की सैद्धान्तिक विचारधारा के रूप में आदर्शवाद अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को मूल्यों और मानकों के परिप्रेक्ष्य में न्याय शान्ति और अन्तर्राष्ट्रीय विधि की कसोटी पर परखना चाहता है । यह दृष्टिकोण इस मान्यता पर आधारित है कि, किसी सबल अन्तर्राष्ट्रीय संस्था की स्थापना विवादों का समाधान हो सकता है; यह दृष्टिकोण विवेक वैधता तथा आशावाद से अधिक प्रभावित था जिसमें किसी ‘यूटोपिया’ की स्थापना करना प्रमुख लक्ष्य था ।
इस दृष्टि से यह यथार्थवाद से भिन्न है जो कि अनुभववादी विश्लेषण (Empirical Analysis) के आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को परखता है न कि मानकात्मक सिद्धान्तों पर । वस्तुत: राजनीतिक आदर्शवाद कल्पनावाद (Utopianism) का ही एक प्रतिरूप है ।
आदर्शवादी दृष्टिकोण: समालोचना:
इस सिद्धान्त की आलोचना निम्नलिखित तर्कों के आधार पर की गयी:
प्रथम:
आदर्शवादी व्यवस्था तभी सम्भव हो सकती है, जब सभी राज्य पारस्परिक सम्बन्धों में बल और सैनिक शक्ति के प्रयोग का परित्याग कर दें इसके स्थान पर नैतिक सिद्धान्तों का पालन करें किन्तु यह निकट तो क्या सुदूर भविष्य में भी सम्भव नहीं प्रतीत होता है । मॉर्गेन्थाऊ ने लिखा है कि- “इस विश्व में परस्पर विरोधी स्वार्थ और संघर्ष इतने अधिक प्रबल हैं कि इनके होते हुए नैतिक सिद्धान्तों को पूर्ण रूप से क्रियान्वित नहीं किया जा सकता है ।”
द्वितीय:
आदर्शवादी व्यवस्था लाने के लिए उग्र, सैनिकवादी, हिंसक शक्तियों का पूरा दमन और विरोध किया जाना चाहिए ।
तृतीय:
इस सिद्धान्त के अनुरूप राज्यों से उदात्त नैतिक सिद्धान्तों के पालन की आशा रखना मृग-मरीचिका मात्र है । राष्ट्र संघ की स्थापना के कुछ ही वर्षों बाद आदर्शवादी दृष्टिकोण की दुर्बलताएं स्पष्ट होने लगीं ।
इसके कई कारण थे:
प्रथम:
राष्ट्र संघ तथा उससे सम्बन्धित संस्थाएं कभी भी मानवीय भ्रातृभावना की प्रतीक नहीं हो सकी जो समस्त देशों में अधिकांश लोगों के प्रेम तथा भक्ति को उत्पन्न कर सकतीं जिसके द्वारा उस प्रतिष्ठा एवं अधिकार का विकास हो सकता जिसकी एक प्रारम्भिक विश्व सरकार को आवश्यकता थी ।
द्वितीय:
राष्ट्र संघ सत्ताधारी सरकारों में सहयोग का एक उपाय मात्र ही रहा । उनके प्रजाजन तथा नागरिक राष्ट्रीय हितों में संलग्न देशभक्त ही रहे । कुछ राज्यों में वे वंशीय विजय के स्वप्नों की ओर आकर्षित रहे दूसरों में उन्हें भय से निष्क्रिय कर दिया गया और भी अन्य राज्यों में उन्हें मदोन्मत्त करके धोखे में डाला गया ।
कहीं पर भी उन्हें सामान्य उद्देश्यों की प्रभावपूर्ण सेवा के लिए एक करने की चेष्टा नहीं की गयी । अतएव जेनेवा की लेमन झील के तटों पर स्थित एरियाना पार्क में संघ का श्वेत भवन अन्त में एक समाधि बन गया ।
तृतीय:
राष्ट्र संघ की व्यवस्था में छोटे और कमजोर राष्ट्रों का ब्रिटेन और फ्रांस जैसी बड़ी शक्तियों पर से विश्वास उठ चुका था । छोटे और कमजोर राष्ट्रों को यह समझने में देर न लगी कि महाशक्तियां न्याय और सच्चाई का साथ देने के बजाय अपने न्यस्त स्वार्थों को अधिक प्राथमिकता देती हैं ।
18 सितम्बर, 1931 को जापान ने मध्य मंचूरिया पर अधिकार कर लिया और राष्ट्र संघ मूक दर्शक बना रहा । जब जर्मनी ने 7 मार्च, 1936 ई. को लोकार्नो सन्धि अस्वीकार कर दी तथा राइनलैण्ड को फिर से सैनिक अड़ा बनाना शुरू कर दिया तब पश्चिमी शक्तियों ने संघ परिषद् के एक और प्रस्ताव के सिवाय अन्य किसी भी प्रकार के विरोधी कार्य की उपेक्षा की ।
इसके बाद के जर्मनी के पुन: शस्त्रीकरण तथा आक्रामक हलचलों की भी जेनेवा में कोई प्रतिध्वनि न हो सकी । हिटलर तथा मुसोलिनी के प्रति ब्रिटेन और फ्रांस की तुष्टीकरण नीति ने आदर्शवादी दृष्टिकों की पोल खोल करके रख दी ।
मुसोलिनी द्वारा इथियोपिया को हड़पना, हिटलर द्वारा आस्ट्रिया तथा चैकोस्लोवाकिया का जर्मनी में विलीनीकरण, आदि की घटनाओं के इस स्वार्थपूर्ण अनुक्रम में संघ के छोटे सदस्यों का कार्य भेड़ों के उस झुण्ड का कार्य था, जिसे भेड़ की खाल में गीदड़ों ने धोखा दिया हो ।
जब इथियोपिया के शासक हेली सिलासी ने कहा कि- ”मैं यहां पर उस न्याय की मांग करने के लिए हूं, जो मेरी प्रजा का अधिकार है तथा उस सहायता के लिए भी जिसका वचन 8 महीने पूर्व 52 राष्ट्रों ने दिया था…।” 12 मई, 1938 को लॉर्ड हैलीफैक्स ने जो उत्तर दिया उसने आदर्शवाद को अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों से पूर्ण तिलांजलि ही दे दी ।
हैलिफैक्स ने कहा था- “वास्तविकताओं का सामना करने से कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता, वरन् बहुत कुछ खोया जा सकता है । राष्ट्र संघ अवश्य ही महान् है परन्तु जिन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उसका अस्तित्व है वे उससे भी महान् हैं तथा उन उद्देश्यों में सबसे महानतम् शान्ति है ।”
राष्ट्र संघ की असफलता ने यह सिद्ध कर दिया कि न्याय और नैतिकता के सिद्धान्तों के आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का संचालन नहीं हो सकता । प्रथम और द्वितीय महायुद्ध के दौरान यथार्थबाद अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की प्रभावी विचारधारा के रूप में अवतरित हुआ जिसने अन्तर्राष्ट्रीयतावाद प्राकृतिक सौहार्द, न्याय, विश्व-शान्ति, अन्तर्राष्ट्रीय विधि जैसे आदर्शवादी- नैतिक सिद्धान्तों को करारा झटका देते हुए राज्य शक्ति के नग्न विस्तार, नाजीवादी और फासीवादी विस्तारवादी नीतियों को प्रश्रय दिया ।
शीतयुद्ध काल में यथार्थवादी सिद्धान्तों ने महाशक्तियों की शक्ति प्रतिस्पर्धा में विश्व को दो गुटों में विभाजित कर दिया । आदर्शवादी मानदण्डों को तिलांजलि देते हुए यथार्थवादी तो यहां तक कहने लगे कि विश्व के दो गुटों में विभाजित हो जाने से ऐसा शक्ति सन्तुलन स्थापित हो गया है कि ‘प्रभावी आणविक निवारकता की पद्धति’ के कारण विश्व शान्ति स्थापित हुई है ।
अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की यथार्थता को समझने के लिए शक्ति युद्ध आदि वास्तविक तत्वों की ओर भी समुचित ध्यान देना अपरिहार्य है । अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की मूल यथार्थ प्रेरणाओं की उपेक्षा करने के कारण आदर्शवादी दृष्टिकोण अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के विश्लेषण में विशेष सहायक नहीं होता ।
अब यह स्वीकार किया जाने लगा कि विवेक तथा नैतिकता का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में कोई स्थान नहीं है; अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं में सुधार करना एक जटिल कार्य ही नहीं अपितु असम्भव है; युद्ध का अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों से उन्मूलन नहीं हो सकता; अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को संचालित करने वाले प्रमुख तत्व ‘शक्ति’ एवं ‘राष्ट्रीय हित’ हैं ।
इस प्रकार मानव स्वभाव एवं अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के विषय में यह परिवर्तित दृष्टिकोण एक मोड़ का सूचक था । अब आग्रह उस वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर था जिसका आधार यथार्थवाद एवं व्यवहारवादी अध्ययन बना ।
Essay # 2. यथार्थवादी दृष्टिकोण या उपागम (Realistic Approach):
आदर्शवादी उपागम की प्रतिक्रिया का परिणाम था यथार्थवादी उपागम । प्राचीन चीनी सैन्य रणनीतिकार सुन झु (Sun Tzu) की कृति ‘Art of War’; कौटिल्य की कृति ‘अर्थशास्त्र’ यूनानी इतिहासकार ‘थुसिडाइडस’ (Thucydides) की रचना ‘History of the Peloponnesian War’ में ‘राजनीतिक यथार्थवाद’ के बीज प्रस्फुटित होते दिखायी देते हैं । कौटिल्य का ‘मण्डल सिद्धान्त’ और ‘षाड्गुण्य नीति’ में आधुनिक यथार्थवाद के बीज ढूंढे जा सकते हैं ।
वैसे 18वीं और 19वीं शताब्दी में यथार्थवादी उपागम की चर्चा हुई थी और मैकियावेली का समूचा दर्शन यथार्थवादी चिन्तन की आधारशिला प्रस्तुत करता है तथापि अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के क्षेत्र में इसका पुनरुत्थान द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद हुआ है ।
हिटलर और मुसोलिनी के अभ्युदय, उनकी आक्रामक और विस्तारवादी अभिवृतियां, उनके द्वारा शक्ति और युद्ध की आवश्यकता पर जोर देना आदि ऐसे तथ्य हैं, जिन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के विद्वानों को मानव स्वभाव एवं विश्व राजनीति की यथार्थता के समझने के लिए लालायित किया ।
यथार्थवादी दृष्टिकोण का आधार है, मैकियावेली का यह कथन कि ”मनुष्य, शस्त्र, धन एवं रोटी युद्ध की शक्ति है, परन्तु इन चारों में प्रथम दो अत्यन्त आवश्यक हैं क्योंकि मनुष्य एवं शस धन एवं रोटी प्राप्त कर सकते हैं परन्तु रोटी तथा धन, मनुष्य एवं शस प्राप्त नहीं कर सकते ।” वस्तुत: यथार्थवादी दृष्टिकोण शक्ति शस और युद्ध को मानव स्वभाव की विशेषताएं मानता है ।
यह कहना अधिक उचित होगा कि यथार्थवाद विचारों का वह समूह है जो सुरक्षा और शक्ति के घटकों के ध्वनितार्थों को अपनी चिन्तन सामग्री मानता है । इन विचारों का जन्म व्यक्ति के इस विश्वास से होता है कि दूसरे लोग सदा उसे नष्ट करने की कोशिश करते हैं और इसलिए उसे अपनी रक्षा की खातिर हर समय दूसरों को नष्ट करने के लिए तैयार रहना चाहिए ।
यथार्थवादी दृष्टिकोण की तह में मूल मान्यता यह है कि, राष्ट्रों के बीच विरोध एवं संघर्ष किसी-न-किसी रूप में सदैव बने रहते हैं । यथार्थवादी इस विरोध एवं संघर्ष को अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में एक शाश्वत नियम के रूप में देखते हैं न कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की आकस्मिक घटना के रूप में ।
यथार्थवाद के अनुसार:
”वाद तथ्यों के उचित मूल्यांकन के उपरान्त उनमें तर्कसंगत अर्थों को खोजने की प्रक्रिया है । किसी भी राज्य की परराष्ट्र नीति का पूर्वाभ्यास उस राज्य की राजनीतिक गतिविधियों कार्यकलापों तथा घटनाक्रम के विश्लेषण से सम्भव है परन्तु केवल तथ्यों का विश्लेषण पर्याप्त नहीं है । यथार्थवाद के अनुसार राष्ट्र की शक्ति का विकास ही उसके हितों को पूर्ण करने का एकमात्र माध्यम है ।
प्रत्येक राज्य और राजनेता सत्ता और शक्ति के विकास से ही अपनी हित-पूर्ति के लिए प्रयत्नशील रहते हैं । शक्ति और हित के आधार पर ही राजनीति के वास्तविक अभिनेताओं के कार्यों को समझा जा सकता है ।
यथार्थवादी दृष्टिकोण इस बात पर बल देता है कि विदेश नीति सम्बन्धी निर्णय राष्ट्रीय हित के आधार पर लिए जाने चाहिए न कि नैतिक सिद्धान्तों और भावनात्मक मान्यताओं के आधार पर । यथार्थवादी सिद्धान्तकार शक्ति राजनीति को अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध का मूलभूत नियम मानते हैं । शक्ति ही ऐसा तत्व है जिसके माध्यम से अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का विश्लेषण किया जा सकता है ।
यथार्थवादी दृष्टिकोण के विकास में कई विद्वानों का योगदान रहा है जिनमें जार्ज कैनन, राइनॉल्ड नेबूर, जार्ज श्वरजनबर्गर, डॉ. हेनरी कीसिंजर तथा हान्स मॉर्गेन्थाऊ प्रमुख हैं । मॉर्गेन्थाऊ यथार्थवादी दृष्टिकोण के प्रमुख प्रवक्ता हैं । मॉर्गेन्थाऊ ने ही यथार्थवाद को सैद्धान्तिक आधार पर खड़ा किया है ।
डॉ. महेन्द्रकुमार के शब्दों में, “मॉर्गेन्थाऊ केवल यथार्थवादी लेखक ही नहीं बल्कि पहले सिद्धान्तकार हैं जिन्होंने यथार्थवादी सांचे को वैज्ञानिक ढंग से विकसित किया ।” उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में यथार्थवादी प्रतिमान (Realist Model) विकसित किया है । इसी कारण गाजी एलगोसाबी ने मॉर्गेन्थाऊ को यथार्थवाद का पर्यायवाची बताया है ।
स्टैनली हॉफमैन के शब्दों में ”यद्यपि यथार्थवादी सिद्धान्त के अनेक तत्वों की व्याख्या मॉर्गेन्थाऊ से पहले अनेक विद्वानों ने की थी किन्तु इसके सैद्धान्तिक रूप का सबसे अधिक विशद और विस्तृत प्रतिपादन मॉर्गेन्थाऊ ने पहली बार अपनी पुस्तक ‘पॉलिटिक्स अमंग नेशन्स’ में इतनी सफलता के साथ किया कि यह अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का एक विशिष्ट सम्प्रदाय समझा जाने लगा ।”
मॉर्गेन्थाऊ ने अपने मॉडल में ‘शक्ति’ (Power) पर मुख्य रूप से बल दिया है, इसलिए इसे ‘शक्तिवादी दृष्टिकोण’ (Power Approach) भी कहा जाता है । मॉर्गेन्थाऊ की मान्यता है कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का मूल आधार ‘शक्ति के रूप में परिभाषित हित की अवधारणा’ (Concept of Interest defined in terms of Power) है ।
शक्ति के परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रहित की महत्ता पर बल देने के कारण मॉर्गेन्थाऊ का दृष्टिकोण यथार्थवादी दृष्टिकोण बन जाता है । मॉर्गेन्थाऊ के शब्दों में, “उनका सिद्धान्त यथार्थवादी इसीलिए होता है कि, वह मानव स्वभाव को उसके यथार्थ में देखते हैं जो इतिहास में अनादि काल से बार-बार परिलक्षित होता रहा है ।”
प्रथम विश्वयुद्ध से पूर्व ट्रीटस्के, नीत्से तथा एरिक कॉपसन जैसे विचारकों ने भी शक्ति के इस दृष्टिकोण पर बल दिया है । इन्होंने शक्ति संचय शक्ति प्रसार तथा शक्ति प्रदर्शन को राज्य की विशेषताएं माना । फ्रेडरिक वाटकिन्ज, हैरल्ड लैसवेल तथा डेविड ईस्टन जैसे बाद के विद्वानों ने शक्ति की संकल्पना को सम्भवत समकालीन राजनीति विज्ञान की मूल संकल्पना माना ।
इनके अनुसार, राजनीतिक प्रक्रिया का अर्थ है शक्ति को आकार देना, शक्ति वितरण करना और शक्ति का उपयोग करना ।’ सन् 1945 के बाद के अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के विद्वानों; जैसे ई. एच. कार, जार्ज श्वरजनबर्गर, क्विंसी राइट, मॉरगेन्थाऊ आदि ने राजनीति विज्ञान की इस शक्ति संकल्पना को विस्तृत करके अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों पर लागू करने का प्रयत्न भी किया ।
हो सकता है कि इन यथार्थवादियों में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में शक्ति की भूमिका को लेकर मतभेद हों । यद्यपि इस तथ्य पर सभी में आम सहमति है कि ‘शक्ति’ अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में अत्यन्त प्रभावक तत्व है ।
मॉरगेन्थाऊ के राजनीतिक यथार्थवाद के छ: सिद्धान्त (Morgenthau’s Six Principles of Political Realism):
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के, मॉर्गेन्थाऊ के अनुसार, दो प्रमुख उद्देश्य हैं: प्रथम, उन शक्तियों एवं प्रभावों की खोज करना तथा उन्हें समझना जो अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को निर्धारित करते हैं । द्वितीय, ये शक्तियां एवं प्रभाव किस प्रकार कार्य करते हैं तथा किस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक सम्बन्धों एवं संस्थाओं पर प्रभाव डालते हैं । चूंकि मॉर्गेन्थाऊ राजनीतिक यथार्थवाद के मुख्य प्रवक्ता हैं अत: यह समीचीन होगा कि उनके अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के यथार्थवादी सिद्धान्त के छ: नियमों का यहां उल्लेख किया जाये जो निम्नांकित हैं ।
मॉर्गेन्थाऊ : यथार्थवाद के छ: सिद्धान्त:
i. राजनीति पर प्रभाव डालने वाले सभी नियमों की जड़ मानव प्रकृति में होती है ।
ii. राष्ट्रीय हितों को शक्ति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है ।
iii. राष्ट्रहित का कोई निश्चित अर्थ नहीं होता है ।
iv. विवेक राजनीति का उच्चतम मूल्य ।
v. राष्ट्र के नैतिक मूल्यों को सार्वभौमिक मूल्यों से पृथक् मानना ।
vi. राजनीतिक क्षेत्र की स्वायत्तता ।
यथार्थवादियों ने अपने सिद्धान्त का विकास मानव स्वभाव तथा ऐतिहासिक अनुभव के आधार पर किया है । इतिहास के विश्लेषण से यथार्थवादियों का निष्कर्ष था कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में राष्ट्रों के कुछ निश्चित व्यवहार की पुनरावृति होती रहती है ।
“मानव व्यवहार जैसा कि वस्तुत: है और ऐतिहासिक प्रगति का क्रम जैसा कि वास्तव में होता है” आदि के आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के कुछ नियमों को खोजा जा सकता है । राष्ट्रीय हित यथार्थवादी सिद्धान्त का आधार है, किन्तु राष्ट्रीय हित केवल शक्ति परिप्रेक्ष्य में ही परिभाषित और लक्षित होता है ।
यथार्थवादी सिद्धान्तकार शक्ति राजनीति को अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का मूलभूत नियम मानते हैं । शक्ति ही ऐसा तत्व है जिसके माध्यम से अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का विश्लेषण किया जा सकता है । मॉर्गेन्थाऊ के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति प्रत्येक राजनीति की भांति शक्ति संघर्ष है । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का अन्तिम लक्ष्य चाहे कुछ भी हो शक्ति सदैव तात्कालिक उद्देश्य रखती है ।
यथार्थवादी दृष्टिकोण (उपागम) के आधारभूत सिद्धान्त हैं:
i. अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की प्रकृति अराजकतावादी है ।
ii. अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में प्रमुख सक्रिय कार्यकर्ता (Principle actors) सम्प्रभु राज्य होते हैं ।
iii. अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं और संगठनों का सम्प्रभु राज्य कर्ताओं पर कोई प्रभाव, नियन्त्रण और वर्चस्व नहीं होता ।
iv. उपराष्ट्रीयता और बहुराष्ट्रीय वैचारिक सांस्कृतिक समूहों के बजाय राष्ट्रवाद प्रभावी और राज्यों के व्यवहार को परिचालित करने वाली प्रमुख विचारधारा होती है ।
v. राज्य अपने राष्ट्रीय हितों की पूर्ति के लिए संघर्षरत रहते हैं ।
vi. राज्यों में दीर्घकालीन आपसी सहयोग अथवा मैत्री सम्भव नहीं है, “राज्यों के न तो स्थायी मित्र होते हैं और न स्थायी शत्रु राष्ट्रीय हितों का संरक्षण ही एकमात्र स्थायी मित्र होता है ।”
vii. राज्यों का सर्वोपरि लक्ष्य अपनी सुरक्षा और अपने अस्तित्व की रक्षा (Security and Survival) है ।
viii. राज्य अपने अस्तित्व की रक्षा ‘शक्ति’ खासतौर से सैनिक प्रकृति वाली शक्ति से ही करते हैं ।
ix. राज्यों के शक्ति सम्बन्धों को सापेक्ष शक्ति (Relative power) बनाम निरंकुश शक्ति (Absolute Power) के परिप्रेक्ष्य में अभिव्यक्त किया जा सकता है ।
वस्तुत: यथार्थवादी विचारधारा की मान्यता है कि मनुष्य परोपकारी और दयालू नहीं होता अपितु प्रतिस्पर्धी और आत्मकेन्द्रित होता है । तद्नुसार इसकी मान्यता है कि हम अराजकतावादी स्वरूप की विश्व व्यवस्था में रहते हैं जहां राज्यों के ऊपर कोई सत्ता नहीं होती और राज्य स्वयं अपने कार्यों को संचालित एवं नियमित करते हैं ।
राज्यों के आचरण को नियमित करने के लिए ‘विश्व सरकार’ जैसा उच्च नियन्त्रित करने वाली सर्वोपरि निकाय नहीं होता । अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में राज्य प्रमुख कर्ता होते है न कि अन्तर्राष्ट्रीय संगठन, गैर-सरकारी संगठन अथवा बहुराष्ट्रीय निगम । राज्य स्वाभाविक कर्ता (Rational actors) होते हैं जो अपने न्यस्त स्वार्थों के संरक्षण के लिए सदैव लालायित रहते हैं । राज्यों का प्राथमिक लक्ष्य अपनी सुरक्षा है और अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के संचालन में शक्ति की सापेक्ष भूमिका होती है ।
यथार्थवादी दृष्टिकोण: समालोचना:
यथार्थवादी दृष्टिकोण ने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के अध्ययन को सैद्धान्तिक एवं वैज्ञानिक अन्तर्दृष्टि प्रदान की । यथार्थवादियों ने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को आदर्शवादी-कल्पनावादी पर्यावरण से मुक्ति दिलायी ।
यह अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार को स्पष्ट करने वाला उपागम है तथा विदेश नीति निर्माताओं के लिए एक आधार प्रदान करता है । अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में सामान्य सिद्धान्त निर्माण की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण प्रयास था ।
यथार्थवादियों ने यह दर्शाया कि किस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का व्यवस्थित अध्ययन किया जा सकता है तथा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को सिद्धान्तों के आधार पर न कि घटनाओं या संस्थाओं के माध्यम से समझा जा सकता है ।
फिर भी यथार्थवादी उपागम आलोचना से परे नहीं है । प्रथम, यथार्थवादी दृष्टिकोण शक्ति और सत्ता को अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में निर्णायक तत्व मानता है । जबकि सच्चाई यह है कि सत्ता एवं शक्ति महत्वपूर्ण तत्व हो सकता है लेकिन वह सपूर्ण नहीं है ।
द्वितीय यथार्थवादी विचारधारा में कई असंगतियां हैं । शक्ति अथवा सत्ता की परिभाषा करना अत्यन्त कठिन है क्योंकि राज्य की समस्त शक्ति कितनी है, क्या है, यह नापना अत्यन्त जटिल है क्योंकि वह कई क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं का परिणाम है ।
एक राजनीतिज्ञ केवल सत्ता की प्रतिद्वन्द्विता से ही संचालित नहीं होता वरन् अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में सहयोग का भी अपना विशिष्ट महत्व होता है । प्रतिद्वन्द्विता और प्रतिस्पर्द्धा के स्थान पर सहयोगी प्रवृतियों का भी विशेष महत्व होता है ।
तृतीय यथार्थवाद शक्ति संघर्ष के स्थायित्व को स्वीकारा करता है और अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के क्षेत्र में साधनों तथा उद्देश्यों जैसे प्रश्नों के प्रति उदासीन है । चतुर्थ यथार्थवादियों का ध्येय राष्ट्रीय शक्ति का प्रसार मात्र माना जाता था और इसलिए उनकी नीतियां शान्ति विरोधी समझी जाने लगीं ।
रोजेनबर्ग के अनुसार यथार्थवादी सिद्धान्त एक प्रतिक्रियावादी विचारधारा है जो अनुदार चिन्तन एवं व्यवस्था को सुदृढ़ करने की कोशिश करता है । इस सिद्धान्त का पेण्डुलम, असामाजिक, उच्छूंखल अराजकता और निरंकुश स्वार्थ साधक सम्पभुता के बीच झूलता रहता है और इससे किसी सार्थक निष्कर्ष तक पहुंचने की आशा नहीं की जा सकती ।
बेलिस और स्मिथ के अनुसार, यह एक पुराना, अनुदार सिद्धान्त है जो अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था का परीक्षण सिर्फ शक्ति की अवधारणा पर केन्द्रित रहकर बहुत संकुचित दृष्टि से करता है । इसका सहारा लेने से अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का सिर्फ एकायामी (आंशिक) अध्ययन ही सम्भव है ।
आदर्शवाद बनाम यथार्थवाद: समन्वयवादी दृष्टिकोण या उपागम (Idealism Vs. Realism: Dialectic Approach):
यह एक विवादास्पद प्रश्न है कि अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के अध्ययन के लिए आदर्शवाद का दृष्टिकोण उपयुक्त है अथवा यथार्थवाद का । आदर्शवाद एवं यथार्थवाद में परस्पर विरोध का सबसे बड़ा केन्द्रबिन्दु शक्ति की समस्या है ।
यथार्थवाद शक्ति संघर्ष के स्थायित्व को स्वीकार करता है और अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के क्षेत्र में साधनों तथा उद्देश्यों जैसे प्रश्नों के प्रति उदासीन है । इसके विपरीत आदर्शवादी दृष्टिकोण शक्ति राजनीति को इतिहास का सिर्फ असामान्य या अस्थायी दौर समझता है ।
वह ऐसे अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की कामना करता है जो शक्ति राजनीति अनैतिकता और हिंसा से सर्वथा मुक्ता हो । इससे यह धारणा विकसित हुई कि यथार्थवाद के आधार पर बनी नीतियां सारत: राष्ट्रवादी और शान्ति विरोधी होती हैं और आदर्शवाद के आधार पर बनी नीतियां सारत: अन्तर्राष्ट्रीय और शान्ति की पक्षपोषक होती हैं ।
आदर्शवाद और यथार्थवाद के अतिवादी दृष्टिकोणों का परित्याग करते हुए दोनों के बीच का मार्ग समन्वयवादी दृष्टिकोण है । यह यथार्थवादियों के निराशावाद और आदर्शवादियों के आशावाद के बीच समन्वय का प्रयत्न है ।
यह दोनों में से किसी भी दृष्टिकोण को पूर्णत: सन्तोषजनक नहीं मानता । समन्वयवाद अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से देखता है । इसके अनुसार, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के विद्यार्थी को कोई पूर्वाग्रह या पूर्व मान्यता न रखते हुए विश्व की राजनीतिक गतिविधियों का तटस्थ भाव से पर्यवेक्षण कर तथ्यों के संग्रह .तथा विश्लेषण के मार्ग पर बढ़ना चाहिए ।
क्विन्सी राइट जैसे विद्वान विदेश नीति के निर्माण में दोनों ही दृष्टिकोणों की उपादेयता स्वीकार करते हैं । यथार्थवाद को उन अल्पकालीन राष्ट्रीय नीतियों का सूचक मानते हैं जिनका ध्येय तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना होता है और आदर्श को उन दीर्घकालीन नीतियों का सूचक मानते हैं जिनका ध्येय भविष्य में पूरे किए जाने वाले उद्देश्यों की सिद्धि करना होता है ।
जार्ज कैनन ने भी यथार्थवाद के साथ आदर्शवादी दृष्टिकोण का सामंजस्य बैठाया है । उनका मत है कि हम केवल अपने हितों को जान और समझ सकते हैं । कोई भी देश किसी दूसरे देश की संस्थाओं और जरूरतों के बारे में निर्णय नहीं कर सकता ।
इसीलिए उनका सुझाव है कि एक ओर तो हमें अपनी विदेश नीति और अपनी राष्ट्रीय आवश्यकताओं के अनुसार कार्य करना चाहिए और दूसरी ओर उन नैतिक और आचार सम्बन्धी सिद्धान्तों के अनुसार कार्य करना चाहिए जो हमारी सभ्यता की भावना के सहजात सिद्धान्त हैं ।
आदर्शवाद पर अत्यधिक बल देने से निराशा का जन्म होता है और यथार्थवाद पर अटल विश्वास रखने से अक्सर यथास्थिति के पक्षपोषण और शक्ति संघर्ष को बढ़ावा देने वाली प्रवृत्तियां जन्म लेती हैं । इसलिए एक ऐसे दर्शन की आवश्यकता महसूस की गयी जो राजनीतिक यथार्थवाद की तथ्यमूलक अन्तर्दृष्टि का नीतिशास्त्र और राजनीतिक आदर्शवाद के आदर्शों के साथ मेल करा सकें ।
जॉन हर्ज ने एक ऐसे ही दर्शन का ढांचा खड़ा करने का प्रयास किया है जिसमें उसे काफी सफलता मिली है । इस दर्शन को उसने ‘यथार्थवादी उदारवाद’ (Realistic liberalism) कहा है । यह दर्शन हमें आदर्शवाद और यथार्थवाद की त्रुटियों से बचाता है । यह यथार्थवादियों के निराशावाद और आदर्शवादियों के आशावाद के बीच एक प्रकार का समन्वय करता है ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद होने वाली वैज्ञानिक तकनीकी और प्रौद्योगिकी क्रान्ति के परिणामस्वरूप यथार्थवाद और आदर्शवाद के निकट आने की सम्भावनाएं बढ़ने लगीं । आणविक शस्त्रों, प्रक्षेपास्त्रों और नाना प्रकार के सामरिक शस्त्रों की बढ़ती हुई होड़ से न केवल आदर्शवादी अपितु यथार्थवादी भी चिन्तित होने लगे ।
अब यह महसूस किया जाने लगा कि सुरक्षा के लिए लड़े जाने वाले युद्ध से आत्मघाती विश्वयुद्ध का खतरा पैदा हो सकता है । अब विश्व शान्ति अल्पकालीन उद्देश्य भी है और दीर्घकालीन उद्देश्य भी । कोई भी यथार्थवादी शान्ति की आवश्यकता के सर्वोपरि मूल्य की उपेक्षा नहीं कर सकता है ।
Essay # 3. नव-यथार्थवादी दृष्टिकोण या उपागम (Neo-Realist Approach):
समकालीन यथार्थवाद को ‘नव-यथार्थवाद’ या ‘संरचनात्मक यथार्थवाद’ भी कहते हैं । इसका उदय द्वितीय महायुद्ध के बाद मॉरगेन्थाऊ की कृति ‘पॉलिटिक्स एमंग नेशन्स’ (1949) से माना जाता है । 1980 के बाद केनेथ वाल्ट्ज ने इस उपागम को सैद्धानिक सुदृढ़ता प्रदान की ।
नव-यथार्थवादी अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं की व्याख्या अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की संरचना के परिप्रेक्ष्य में करते हैं न कि व्यक्तिगत राज्यों के उद्देश्यों के अनुसार । नव-यथार्थवादी विचारकों के अनुसार, राज्यों के आचरण का मुख्य तत्व अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की विभिन्न संरचनाओं के विश्लेषण के द्वारा वे विश्व राजनीति के नियमों का प्रतिपादन करते हैं ।
नव-यथार्थवादी अन्तर्राष्ट्रीय संघर्षों को अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की अराजकतावादी संरचना का परिणाम मानते हैं । उनके अनुसार विभिन्न राज्यों के पारस्परिक सम्बन्ध कितने ही मैत्रीपूर्ण क्यों न हों उनमें कभी न कभी मतभेद या संघर्ष उत्पन्न हो ही जाते हैं ।
इस प्रकार के सरंचनात्मक या नव-यथार्थवाद को प्राय: केनेथ वाल्ट्ज की कृति ”थ्योरी आफ इन्टरनेशनल पॉलिटिक्स” (1979) के साथ जोड़ा जाता है । वाल्ट्ज का स्पष्ट मत था कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की संरचना का राज्यों के आचरण और व्यवहार पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है ।
उनके अनुसार अराजकता के कारण युद्धों को समाप्त करने के लिए सहयोग पर आधारित समझौते असम्भव हो जाते हैं । अराजकता से अभिप्राय है कि सम्प्रभु राज्यों के ऊपर (उच्चतर) और कोई ऐसी शक्ति नहीं है जो कि उनके मध्य शान्ति और व्यवस्था का निर्माण कर सके ।
इस स्थिति को ‘युद्ध की स्थिति’ का पर्याय मान लिया जाता है । संरचनात्मक यथार्थवादियों के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की संरचना ही ऐसी है कि इस बात की सम्भावना बराबर रहती है कि कोई भी राज्य कभी भी युद्ध का सहारा ले सकता है ।
दूसरे शब्दों में, अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की संरचना ऐसी है कि, चाहे राज्यों के नेतागण शान्ति के कितने भी इच्छुक हों, यह व्यवस्था राज्यों को युद्ध के लिए प्रेरित कर ही देती है । केनेथ वाल्ट्ज का संरचनात्मक यथार्थवाद ही नव-यथार्थवाद का एकमात्र प्रतिमान नहीं है ।
नव-यथार्थवादियों में जोजेफ ग्रीचो, हान्स मॉरगेन्थाऊ, रेमॉड आरों, स्टेनली हॉफमैन, रॉबर्ट जर्विस, स्टीफेन वाल्ट, जॉन मैशिमिर तथा रॉबर्ट गिलयिन जैसे नाम भी उल्लेखनीय हैं । ग्रीचो उन आधुनिक यथार्थवादियों का प्रतिनिधित्व करता है जो कि नव-उदारवादियों के आलोचक है, जो राज्यों का एकमात्र उद्देश्य असीमित लाभ अर्जित करना मानते हैं । उसके अनुसार आमतौर से सभी राज्य असीमित तथा सापेक्षिक लाभ दोनों में रुचि रखते हें । इनके अतिरिक्त नव-यथार्थवादी ‘सुरक्षा अध्ययनों’ पर भी काफी बल देते हैं ।
मौटे तौर से नव-यथार्थवाद के दो प्रतिमान उभरकर सामने आते हैं:
1. आक्रामक नव-यथार्थवाद और
2. सुरक्षात्मक नव-यथार्थवाद
परम्परागत यथार्थवादियों की भांति आक्रामक नव-यथार्थवादियों का कहना है कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में संघर्ष अनिवार्य है तथा नेतृत्व को विस्तारवादी शक्तियों से सदैव सतर्क रहना चाहिए । दूसरी ओर, सुरक्षात्मक नव-यथार्थवादी युद्ध के भीषण परिणामों से अवगत हैं तथा उनका मत है कि युद्ध सदा ही समाज के तर्कविहीन वर्गों की गतिविधियों और उनकी सोच का परिणाम है।
कुछ विद्वान इसे आधुनिक यथार्थवाद (Modern realism) अथवा उदारवादी यथार्थवाद (Liberal realism) कहकर भी पुकारते हैं । वैसे अनेक विद्वान संरचनात्मक यथार्थवाद (Structural realism) और उदारवादी यथार्थवाद (Liberal realism) में भी अन्तर करते हैं । उदारवादी यथार्थवाद को ‘नव उदार संस्थावाद’ (Neoliberal institutionalism) के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है ।
जहां ‘संरचनात्मक यथार्थवाद’ (Structural realism) संघर्ष या विवादको अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के स्थायी एवं शाश्वत तत्व के रूप में मानते हुए राज्यों को आर्थिक और सैनिक शक्ति के निरन्तर निर्माण हेतु प्रेरित करता है वहां ‘उदारवादी यथार्थवाद’ अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की प्रकृति को अराजकतावादी मानते हुए भी राजनय, अन्तर्राष्ट्रीय विधि और समुदाय द्वारा व्यवस्था निर्माण की कामना करता है । यह संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों की महत्ता को रेखांकित करता है ।
पुरातन यथार्थवादी जहां युद्ध के कारणों की उत्पत्ति मानव प्रकृति से मानते हैं वहीं नव-यथार्थवादी अन्तर्राष्ट्रीय संघर्षों को अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की अराजकतावादी संरचना का परिणाम मानते हैं । उनके अनुसार विश्व समुदाय के हितों की रक्षा करने तथा नियमों को लागू करने के लिए केन्द्रीय सत्ता का होना आवश्यक है ।
नव-यथार्थवादी दृष्टिकोण: समालोचना:
आलोचकों के अनुसार ‘नव-यथार्थवाद’ अपने विश्लेषण के अनेक बिन्दुओं पर पुरातन यथार्थवाद से मिलता-जुलता है । तथापि,नव यथार्थवाद का जोर ‘अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था’ (International system) पर है न कि मानव प्रकृति (Human Nature) पर । यद्यपि राज्य प्रमुख अभिनेता (Actors) बने रहते हैं, तथापि विश्लेषण के रूप में राज्य के ऊपर और नीचे की इतर शक्तियों पर भी ध्यान दिया जाता है ।
शोध एवं अनुसन्धान की दृष्टि से नव-यथार्थवादी प्रतिमान आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि केनेथ वाल्ट्ज ने जिन मान्यताओं को प्रस्तुत किया है उनका तार्किक परीक्षण होना शेष है । यदि हम वाल्ट्ज की मान्यताओं को स्वीकार न भी करें तो उसमें सुधार (Refine, not refute, Kenneth Waltz) तो कर ही सकते हैं ।