Here is an essay on ‘Our National Goal’ for class 5, 6, 7, 8, 9, 10, 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Our National Goal’ especially written for school and college students in Hindi language.
राष्ट्रीय लक्ष्य क्या हैं ?
जिस प्रकार व्यक्ति के जीवन में कुछ लक्ष्य होते हैं, जिनकी प्राप्ति के लिए वह कार्य करता है उसी प्रकार राष्ट्र के भी कुछ लक्ष्य होते हैं जिन्हें सम्मुख रखकर राष्ट्र कार्य करता है । देश की प्रगति और समृद्धि राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति में सहायक हैं ।
सरकार इन राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए विधि (कानून) बनाती है तथा प्रशासनिक व्यवस्थाओं को सुदृढ़ करती है । हमारा देश प्रजातांत्रिक देश है । हमारे राष्ट्रीय लक्ष्य हैं: लोकतंत्र, पंथनिरपेक्षता, राष्ट्रीय एकता, स्वतंत्रता, समानता, सामाजिक समरसता, अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सहयोग ।
राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति:
हमें अपने राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति लोकतंत्रीय विधि से करनी है । हमारे देश में संविधान के अनुसार लोकतांत्रिक शासन पद्धति की स्थापना की गई है । इस पद्धति में सरकार का गठन जनता करती है ।
लोकतंत्र:
लोकतन्त्र का वास्तविक अर्थ है प्रत्येक व्यक्ति को स्वतन्त्रता के साथ-साथ समान अधिकारों की प्राप्ति हो । समाज के सभी वर्गों को विकास के समान अवसर बिना भेदभाव के उपलब्ध हों । लोकतांत्रिक शासन पद्धति में नागरिकों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है । एक उत्तम सरकार का निर्वाचन करना नागरिकों का कर्त्तव्य है । प्रत्येक नागरिक को अपने कर्त्तव्यों के प्रति जागरूक रहना चाहिए, जिससे सरकार जनहित में कार्य कर सके ।
लोकतंत्र उस शासन प्रणाली को कहते हैं, जिसमें जनता प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों को चुनती है और वे प्रतिनिधि जनहित को ध्यान में रखकर कार्य करते हैं तथा शासन का संचालन करते हैं । भारत में लोकतांत्रिक शासन है ।
यह जनता के प्रति उत्तरदायी है । प्रत्येक नागरिक चाहे वह किसी भी धर्म जाति लिंग अथवा जन्म स्थान का हो उसे मत देने तथा चुनावों में भाग लेने का अधिकार है । हमारे देश की लोकतान्त्रिक सरकार का उद्देश्य लोक कल्याण है । ‘स्वतन्त्रता’, ‘समानता’ और ‘बंधुत्व’ लोकतन्त्र के मुख्य तत्व हैं इनके बिना हम लोकतन्त्र की कल्पना भी नहीं कर सकते ।
स्वतन्त्रता:
व्यक्ति को ऐसे वातावरण और परिस्थितियों की आवश्यकता है, जिसमें रहकर वह अपना विकास समुचित ढंग से कर सके । राज्य उन परिस्थितियों का निर्माण करता है । राज्य में रहते हुए व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास कर सके, इसके लिए उसे स्वतंत्रता की आवश्यकता है ।
स्वतंत्रता का अर्थ कुछ लोग बन्धनों के अभाव से लगाते हैं, पर यदि स्वतंत्रता को इस अर्थ में लिया तो वह स्वेच्छाचारिता में परिवर्तित हो जाती है । समाज में रहते हुए स्वतंत्रता पूर्णत: बन्धनों से मुक्त नहीं हो सकती । अत: वास्तविक स्वतंत्रता अनुचित बन्धनों के स्थान पर उचित बन्धनों की व्यवस्था को स्वीकार करती है । स्वतंत्रता कई प्रकार की होती है ।
उसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता, नागरिक स्वतंत्रता, राजनीतिक स्वतंत्रता, आर्थिक एवं सामाजिक स्वतंत्रता और धार्मिक स्वतंत्रता के रूप में समझ सकते हैं । भारतीय संविधान में उचित प्रतिबंध लगाते हुए प्रत्येक नागरिक को अधिकार के रूप में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार, शांतिपूर्ण सम्मेलन या मीटिंग करने का अधिकार, संघ बनाने की स्वतंत्रता का अधिकार, भारत में कहीं भी घूमने की स्वतंत्रता का अधिकार निवास करने की स्वतंत्रता का अधिकार और व्यापार करने की स्वतंत्रता का अधिकार स्वीकार किया है ।
समानता:
नागरिकों के सम्पूर्ण विकास के लिये राज्य द्वारा समान अवसर उपलब्ध करवाना समानता है । भारत का प्रत्येक नागरिक चाहे वह किसी भी वंश, जाति, सम्प्रदाय और लिंग अथवा जन्म स्थान का हो कानून के समक्ष समान है ।
समानता के प्रकार:
1. सामाजिक समानता ।
2. राजनीतिक समानता ।
3. आर्थिक समानता ।
समानता का महत्व:
1. समानता की स्थिति में भेदभाव का अन्त हो जाता है ।
2. स्वतन्त्रता की रक्षा के लिये समानता आवश्यक है ।
3. व्यक्ति के सर्वागींण विकास के लिये समानता आवश्यक है ।
4. स्वतन्त्र और निष्पक्ष न्याय के लिये भी समानता का होना आवश्यक है ।
न्याय:
न्याय किसी चीज के सही, उचित और तार्किक होने की ओर संकेत करता है । प्रजातांत्रिक समाज में न्याय वह स्थिति होती है जिसमें व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा होती है और समाज में व्यवस्था बनी रहती
है । न्याय का लक्ष्य सम्पूर्ण समाज की भलाई है । न्याय उस सामाजिक स्थिति को कहते हैं जिसमें व्यक्ति के पारस्परिक सम्बन्धों की उचित व्यवस्था की जाती है जिससे समाज में व्यक्ति के अधिकार सुरक्षित रहें । न्याय की धारणा सत्य तथा नैतिकता के रूप में भी समझी जाती है ।
हमारा संविधान अपने सभी नागरिकों को सामाजिक राजनीतिक तथा आर्थिक न्याय प्रदान करता है । भारत में स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष न्याय व्यवस्था की स्थापना की गई है, जिसके द्वारा कानून के पालन को सुनिश्चित किया गया है ।
पंथ निरपेक्षता:
पंथ निरपेक्ष राज्य सभी व्यक्तियों को पंथ और मजहबों की स्वतन्त्रता प्रदान करता है । इसका अर्थ है कि व्यक्तियों को अपने पंथ और उपासना की स्वतन्त्रता होती है । राज्य धर्म एवं सम्प्रदाय किसी भी आधार पर भेदभाव नहीं करेगा ।
वर्तमान समय में कुछ ऐसे भी राज्य हैं, जो कि किसी पंथ विशेष को प्रधानता देते हैं । उदाहरण के लिए पाकिस्तान का संविधान उसे ‘इस्लामिक गणराज्य’ घोषित करता है । हमारे संविधान में घोषित किया गया है कि हमारा राज्य पंथनिरपेक्ष है । राज्य ने किसी भी पंथ को मान्यता नहीं दी है । सभी नागरिकों को अपना धर्म पालन की स्वतन्त्रता है । यह आवश्यक है कि राष्ट्र हित को व्यक्तिगत हित से ऊपर समझना चाहिये ।
अन्तर्राष्ट्रीय शांति व सहयोग:
हमारा एक अन्य राष्ट्रीय लक्ष्य है अन्तर्राष्ट्रीय शांति व सहयोग । इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये भारत ने पंचशील के सिद्धान्त, गुट निरपेक्षता की नीति तथा नि:शस्त्रीकरण को अपनाया है । पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने इस संबंध में कहा था ‘हम विश्व में सर्वत्र शांति चाहते हैं शांति की स्थापना के लिए यदि हम कुछ भी कर सकें तो उसे करने का भरसक प्रयत्न करेंगे ।’
गुट निरपेक्षता:
शक्ति-गुटों या सैनिक गठबन्धनों से पृथकता तथा स्वतन्त्र-विदेश नीति का पालन करना । अंतर्राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर निष्पक्ष एवं स्वतंत्र विचार रखना ही गुट निरपेक्षता है ।
निःशस्त्रीकरण:
नि:शस्त्रीकरण का अर्थ शस्त्रों की दौड़ समाप्त करने अथवा शस्त्रों को कम या समाप्त करने से है । नि:शस्त्रीकरण विश्व शांति की स्थापना के लिए अवश्यक हैं । आज विश्व के सभी राष्ट्र एक दूसरे पर किसी न किसी प्रकार से निर्भर हैं ।
आज संचार के साधन इतने विकसित हो गये हैं कि यदि विश्व के किसी भी भाग में कोई घटना घटित होती है तो उसका प्रभाव हमारी अर्थव्यवस्था एवं राजनीतिक व्यवस्था पर पड़ता है । हमारे पड़ोसी देशों और विश्व में जो कुछ घटित होता है उसके प्रति हम उदासीन नहीं रह सकते ।
हमें अपनी आत्मरक्षा के लिए तैयारी करनी ही होगी और इसके लिए आवश्यक हथियार रखने ही होंगे । यदि हम संसाधनों का अधिकांश भाग अपनी रक्षा पर व्यय करते हैं तो हमारे सामाजिक तथा आर्थिक विकास में बाधा उत्पन्न होती है ।
अत: आत्मरक्षा के लिए आवश्यक हथियार और आर्थिक विकास दोनों पर पूर्ण और संतुलित ध्यान देने की आवश्यकता है । हम अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सहयोग के प्राचीनकाल से ही पक्षधर रहे हैं । भारतीय संस्कृति के मूल में सह-अस्तित्व और सहिष्णुता की नीति रही है ।
लोकतन्त्र एवं नागरिक:
लोकतंत्र शासन का एक प्रकार है । यह एक राजनीतिक आदर्श भी है । लोकतंत्र बहुमत का शासन मात्र नहीं है वरन् यह इस बात को निर्धारित करने का तरीका है कि कौन लोग शासन करेंगे और किन उद्देश्यों के लिए शासन किया जाएगा ।
लोकतंत्र को परिभाषित करते हुए अब्राहम लिंकन ने कहा है कि, “लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा शासन है ।” इसे यदि और स्पष्ट किया जाए तो इसका अर्थ होगा- जनता की सरकार अर्थात जनता की ओर से सरकार, जनता के लिए सरकार अर्थात जनहित के लिए कार्य करने वाली सरकार जनता के द्वारा सरकार अर्थात प्रतिनिधिमूलक सरकार । लोकतंत्र को सभी प्रकार की शासन पद्धतियों में अच्छा माना गया है क्योंकि इसमें किसी न किसी प्रकार से प्रत्येक व्यक्ति की सहभागिता होती है ।
लोकतन्त्र एवं नागरिक:
आदर्श लोकतंत्रीय सरकार तभी संभव है, जब नागरिक अपने अधिकार और कर्त्तव्यों के प्रति जागरूक हों । नागरिकों को अपने देश या क्षेत्र की समुचित जानकारी रहेगी तो वे सही निर्णय ले सकेगें । इसलिये नागरिकों को समाचार पत्र, रेडियो, टेलीविजन, सार्वजनिक सभाओं तथा अन्य साधनों के माध्यम से जानकारी प्राप्त करनी चाहिए । लोकतंत्र में प्रत्येक नागरिक जागरूक और साक्षर होना चाहिए ताकि वह अपने मत का उचित प्रयोग कर सके ।
नागरिकों को सरकार के क्रिया-कलापों पर विचार-विमर्श और आलोचना करने का अधिकार होता है । उन्हें सरकार की जनविरोधी नीतियों का विरोध करने का भी अधिकार है । ऐसे लोकतंत्र जहां जनता अपने प्रतिनिधि निर्वाचित करके भेजती है उसे अप्रत्यक्ष लोकतंत्र कहते हैं । भारत में अप्रत्यक्ष लोकतंत्र है ।
अप्रत्यक्ष लोकतंत्र में सभी राजनीतिक दल चुनाव में अपने-अपने प्रत्याशी खडे करते है । वे मतदाताओं को अपनी नीति एवं कार्यक्रम समझाते है । राजनीतिक दलों की लोकतंत्र में महत्वपूर्ण भूमिका होती है । वे जनता और सरकार के बीच एक कड़ी का कार्य करते है । वे जनमत का निर्माण भी करते है ।
नागरिकों द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा सरकार का निर्माण किया जाता है । जो दल बहुमत प्राप्त करता है वही सरकार बनाता है । जो दल अल्पमत में होता है, वह प्रतिपक्ष दल का कार्य करता है । सरकार द्वारा किये जा रहे कार्यो पर प्रतिपक्ष प्रश्न, उप-प्रश्न पूछकर तथा स्थगन प्रस्ताव लाकर नियन्त्रण रखता है । जिससे सरकार जनता के कल्याण के लिये कार्य करने के लिये बाध्य होती है ।
वयस्क मताधिकार:
वयस्क मताधिकार को अधिकांश लोकतांत्रिक राज्यों में स्वीकार किया गया है । यह मताधिकार का सबसे अधिक प्रचलित सिद्धान्त है । मताधिकार नागरिकों का एक महत्वपूर्ण अधिकार है । भारत में संविधान द्वारा नागरिकों को मत देने का महत्वपूर्ण अधिकार दिया गया हैं ।
हमारे देश में 18 वर्ष की आयु पूर्ण कर लेने वाले हर नागरिक को मत देने का अधिकार प्राप्त है । लिंग, वर्ग, जाति, पंथ के भेदभाव के बिना यह अधिकार सबको प्राप्त है । इसे हम सार्वभौम वयस्क मताधिकार कहते है । प्रत्येक नागरिक को अपने मत का प्रयोग स्वविवेक से अवश्य ही करना चाहिये । वयस्क मताधिकार समानता के सिद्धान्त पर आधारित है ।
मतदान और उसका महत्व:
प्रजातांत्रिक व्यवस्था में मतदान का बहुत अधिक महत्व है । मतदान द्वारा मतदाता यह तय करता है कि वह किस प्रकार के प्रतिनिधियों को अपने शासक के रूप में चाहता है । अब तक हमारे देश में संघ सरकार के लिए 14 सामान्य निर्वाचन हो चुके हैं ।
सार्वभौम वयस्क मताधिकार के द्वारा प्रत्येक वयस्क नागरिक जो 18 वर्ष की आयु पूर्ण कर चुका हो, अपने मत का प्रयोग अपनी इच्छा से कर सकता है । हमारे देश में कुछ नागरिक अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं करते । जिसका मुख्य कारण है जागरूकता की कमी और शिक्षा का अभाव ।
कुछ नागरिक उदासीनता के कारण मतदान नहीं करते । कुछ सोचते हैं: ‘मुझे इससे क्या लाभ होगा ? वे यह अनुभव नहीं करते कि चुनाव में मतदान करना उनका अधिकार ही नहीं अपितु कर्त्तव्य भी है ।” जब मतदाता के सामने अनेक प्रत्याशी होते हैं तो उसे उनमें से किसी एक का चुनाव करना पड़ता है । मतदाता को प्रत्याशी चयन करते समय उनके गुण तथा उनके सामाजिक कार्यों की जानकारी होनी चाहिए । उसे ऐसे व्यक्ति को अपना मत देना चाहिए जो जनता की भलाई का कार्य निष्ठा से कर सके ।
निर्वाचन के समय राजनीतिक दलों के चुनाव घोषणा-पत्रों में राजनीतिक दलों के उद्देश्य और कार्यक्रम दिए होते हैं । नागरिकों को चाहिए कि वे ऐसे राजनीतिक दलों के प्रत्याशी को अपना मत दें जो देश की एकता और अखंडता बनाए रखने और सभी नागरिकों के हितों की रक्षा करने के लिए तत्पर हो । जाति, धर्म या क्षेत्र विशेष की भावनाओं से प्रेरित मतदान लोकतंत्र को कमजोर बनाता है ।
नागरिकों के मौलिक अधिकार:
मौलिक अधिकार व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिये आवश्यक है जिसकी व्यवस्था देश के संविधान के अन्तर्गत की जाती है । इन अधिकारों की रक्षा करना राज्य का कर्त्तव्य है । न्यायपालिका संविधान की संरक्षक होती है अत: मौलिक अधिकारों को न्यायालय का संरक्षण प्राप्त है ।
संविधान में नागरिकों के मूल अधिकारों के साथ-साथ मौलिक कर्त्तव्य भी निर्धारित किए गए हैं जिनका पालन करना प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है । जिस प्रकार हम अपने अधिकारों के प्रति सजग रहते है उसी प्रकार हमारा यह कर्त्तव्य भी है कि हम अपने मौलिक कर्त्तव्यों के प्रति भी उत्तरदायी रहें ।
तब ही राष्ट्र का विकास हो सकेगा । संविधान में उल्लेखित मौलिक कर्तव्यों में कुछ कर्तव्य इस प्रकार हैं – भारत के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य होगा कि वह संविधान का पालन करे । उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे ।
भारत की संप्रभुता, एकता और अखण्डता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्य रखे । देश की रक्षा करे और आह्वान किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करे । भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भातृत्व की भावना का निर्माण करे, जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो । ऐसी प्रथाओं का त्याग कर जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध हो प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा करे आदि ।
मानव अधिकार:
मानव अधिकार, कानून द्वारा प्रदत्त एवं प्रशासनिक व्यवस्था द्वारा पोषित वे परिस्थितियाँ हैं जो मानव के व्यक्तित्व के विकास तथा उसे स्वतंत्र रूप में अपनी भूमिका निभाने के लिए अनिवार्य हैं । ‘मानवाधिकार’ अर्थात मानव को प्रकृति से प्राप्त वे अधिकार, जिनका समुचित प्रयोग कर मनुष्य अपने सर्वांगीण विकास की दिशा में आगे बढ़ता है ।
मानव अधिकार का क्षेत्र:
मानव अधिकार का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है । इसके अंतर्गत विभिल प्रकार के नागरिक राजनैतिक सामाजिक आर्थिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों का समावेश है ।
सामान्यत: इन अधिकारों को समझने के लिए इन्हें चार भागों में विभाजित किया गया है:
1. वे अधिकार, जो प्रत्येक मानव के लिए जन्मजात होते हैं और उसके जीवन का अभिन्न अंग बन जाते हैं ।
2. वे अधिकार, जो मानव जीवन और उसके विकास के लिए मुख्य आधार होते हैं ।
3. वे अधिकार, जिनको पाने के लिए उचित सामाजिक दशाओं अथवा परिस्थितियों का होना अनिवार्य है ।
4. वे अधिकार, जो मानव की प्राथमिक आवश्यकताओं व माँगों पर आधारित होते हैं ।
मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा:
संयुक्त राष्ट्र संघ की मानव अधिकारों की रक्षा करने के क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा है जिसे संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने 10 दिसम्बर 1948 को पारित किया था । इसीलिए प्रतिवर्ष इस घोषणा की वर्षगांठ विश्व के सभी देशों में 10 दिसम्बर को अन्तर्राष्ट्रीय मानव अधिकार दिवस के रूप में मनाई जाती है ।
मानव अधिकार व उनका संरक्षण:
शिक्षा के माध्यम से इन अधिकारों को विभिन्न सामाजिक स्तरों तक पहुंचाया जा सकता है ।
मानव अधिकारों के प्रति जागरूकता जगाने में निम्नलिखित प्रयास किए जा सकते हैं:
1. रैली निकलवाना, मानव शृंखला बनाना, अधिकारों के प्रति जागरूकता हेतु अभियान चलाना ।
2. दूरदर्शन, रेडियो व वीडियो फिल्मों के माध्यम से जानकारी देना ।
3. समाचार पत्र, पोस्टर, नारों आदि के द्वारा प्रचार-प्रसार करना ।
4. बैठकों व संगोष्ठियों में मानव अधिकार व संरक्षण पर चर्चा आयोजित करना ।
मध्यप्रदेश मानव अधिकार आयोग:
मानव अधिकारों के संरक्षण हेतु हमारे देश में भी मानव अधिकार आयोग का गठन किया गया है । मध्यप्रदेश में मानव अधिकार आयोग का गठन 6 जनवरी 1992 को किया गया । भारतीय संसद द्वारा पारित मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम 1993 (28 सितम्बर 1993 से प्रभावशील) के अंतर्गत गठित मध्यप्रदेश मानव अधिकार आयोग एक स्वतंत्र एवं स्वायत्तता प्राप्त संगठन है, जिसका उद्देश्य उक्त अधिनियम में वर्णित अधिकारों का संरक्षण करना है ।
इसके साथ ही साथ, मानव अधिकार संरक्षण मानव अधिकारों को जन साधारण तक पहुंचाने का कार्य भी करता है । मध्यप्रदेश मानव अधिकार आयोग का कार्यालय भोपाल में स्थित है । जिन लोगों के मानव अधिकारों का हनन होता हो वे आयोग के माध्यम से अपने अधिकारों का संरक्षण कर सकते हैं ।
आयोग के पास शिकायत जाने, का तरीका:
(1) पीड़ित व्यक्ति के द्वारा स्वयं अथवा पीड़ित व्यक्ति की ओर से किसी अन्य व्यक्ति के द्वारा आयोग को सीधे प्रार्थना पत्र देकर शिकायत दर्ज करवाई जा सकती है । साधारण कागज पर लिखकर सीधे ही आयोग के कार्यालय में शिकायत भेजी जा सकती है ।
(2) शिकायत दर्ज कराने हेतु वकील की आवश्यकता नहीं है ।
(3) शिकायत दर्ज कराने हेतु किसी भी प्रकार का प्रपत्र निर्धारित नहीं है और न ही किसी प्रकार का कोई शुल्क लिया जाता है, न ही शिकायत पत्र पर स्टाम्प (टिकिट) लगाया जाता है ।
लोकतंत्र की सफलता की आवश्यक शर्तें:
हमें अपने लोकतन्त्र की रक्षा करना व उसे सफल बनाना है ।
लोकतन्त्र की सफलता निम्न बातों पर निर्भर करती है:
शिक्षित जनता:
लोकतंत्र में जनसामान्य राजनीतिक प्रक्रिया में सहभागी रहता है । जब तक जन सामान्य राजनीतिक प्रश्नों को भलीभाँति नहीं समझेगा तब तक उसकी सहभागिता न तो प्रभावशाली होगी और न अर्थपूर्ण रहेगी । इसके लिए नागरिकों का शिक्षित होना बहुत आवश्यक है ।
यह आवश्यक है कि नागरिक स्थानीय, प्रादेशिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं को समझे और उन पर अपने विचारों को व्यक्त करे । अशिक्षित नागरिक अपने स्वविवेक से न तो मताधिकार का प्रयोग कर सकता है और न वह राजनीतिक और आर्थिक प्रश्नों पर अपनी गम्भीर राय दे सकता है । नागरिकों का शिक्षित होना लोकतंत्र की पहली आवश्यकता है ।
राजनैतिक जागरूकता:
राजनीतिक जागरूकता का अभिप्राय है नागरिकों में राजनीतिक प्रश्नों और मुद्दों की जानकारी होनी चाहिए तथा उन मुद्दों पर राजनीतिक दृष्टि से सोचने और विचार करने की क्षमता होना चाहिए । सरकार के कदम और प्रयत्न किस सीमा तक जनहित को प्रभावित करते हैं तथा किस सीमा तक उनका विपरीत प्रभाव पड़ता है, इसके संबंध में विवेकपूर्ण निर्णय लेने की क्षमता नागरिकों में होना चाहिए ।
नागरिकों की विवेकशीलता के अभाव में प्रजातंत्र, भीड़तंत्र में बदल जाता है । नागरिकों में इतनी समझ होना चाहिए कि वे स्वतंत्र विचार विमर्श द्वारा अपने झगड़े सुलझा सकें । राजनीतिक दृष्टि से जागरूक नागरिक अप्रजातांत्रिक तरीकों का सहारा नहीं लेता ।
स्वतंत्र प्रेस:
लोकतंत्र की सफलता के लिए स्वतंत्र प्रेस का होना आवश्यक है । नागरिकों की स्वतंत्रता का सरकार द्वारा अतिक्रमण न हो इसके लिए स्वतंत्र प्रेस का होना अनिवार्य है । स्वतंत्र प्रेस सरकार के दबाव में आए बिना जनता की माँगों को सरकार के सामने रखती है । जनहित के प्रश्न प्रेस द्वारा उठाए जाते हैं । स्वतंत्र प्रेस को प्रजातंत्र का ‘चौथा स्तम्भ’ कहा गया है ।
सामाजिक और आर्थिक समानता:
लोकतंत्र की सफलता के लिए सामाजिक और आर्थिक समानता आवश्यक है । समाज में जब तक ऊँच-नीच, गरीब-अमीर और छूआछूत आदि के भेदभाव रहेंगे लोकतंत्र अच्छी तरह से कार्य नहीं कर सकता । इसी प्रकार आर्थिक असमानता सदैव समाज के विभिन्न वर्गों में पारस्परिक मनमुटाव को जन्म देगी और इसके कारण असंतोष में वृद्धि होगी, इसीलिए ऐसा समाज चाहिए जिसमें गरीब-अमीर का अन्तर कम हो जाए और सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से भेदभाव नहीं हो । जाति, बिरादरी की संकीर्णता प्रजातंत्र के लिए बाधा है ।